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________________ ७९८ युगवीर - निवन्धावली भीतरी भाग अनतकाय होता है तो छाल अनतकाय नही होती, कोई बाहर भीतर सर्वांगरूपसे अनतकाय होता है और कोई इससे बिलकुल विपरीत कतई अनतकाय नही होता, इसी तरह एक अवस्थामै जो प्रत्येक है वह दूसरी अवस्थामे अनतकाय हो जाता है और जो अनतकाय होता है वह प्रत्येक बन जाता है । प्राय यही दशा दूसरी प्रकारकी वनस्पतियोकी भी है । वे भी प्रत्येक और अनतकाय दोनो प्रकारकी होती है— आगममे उनके लिये भी इन दोनो भेदोका विधान किया गया है - जैसा कि ऊपर के वाक्योसे ध्वनित है और मूलाचारकी निम्न गाथाओसे भी प्रकट है, जिनमें पहली गाथा गोम्मटसारमे भी न० १८५ पर दी है । मूलग्गपोरवीजा कंदा तह खंधवीजवीजरूहा | संमुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणांतकाया य ॥२१३|| कंदा मूला छल्ली खंघं पत्तं पवालपुप्फफलं । गुच्छा गुम्मा वल्ली तणाणि तह पव्वकाया य || २१४ || ऐसी हालत कदमूलो और दूसरी वनस्पतियोमे अनतकाय - की दृष्टिसे आमतौर पर कोई विशेष भेद नही रहता । अत जो लोग अनतकायको दृष्टिसे कच्चे कदमूलोका त्याग करते हैं उन्हे इस विषय मे बहुत कुछ सावधान होनेकी जरूरत है । उनका सपूर्ण त्याग विवेकको लिये हुए होना चाहिए | अविवेक - पूर्वक जो त्याग किया जाता है वह कायकष्टके सिवाय प्राय किसी विशेष फलका दाता नही होता । उन्हे कदमूलोके नामपर ही भूलकर सबको एकदम अनतकाय न समझ लेना चाहिये, बल्कि इस बात की जाँच करनी चाहिये कि कौन-कौन कदमूल अनतकाय नही हैं, किस कदमूलका कौन-सा अवयव अनतकाय है और कौन
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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