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अन्तिम पत्र
युगवीर-निवन्धावली
ओ ही अनन्तानन्तपरमसिद्धेभ्यो नम ।
टीकमगढ़-म० प्र०
श्रीमान आदरणीय मुरनार साहिब, डाक्टर श्री श्रीचन्दजी |
२८/५/६५
सस्नेह जयजिनेश ।
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आशा है कि आप सकुशल हैं । कल आपका चिर प्रतीक्षित कृपा-पत्र प्राप्त हो गया है । मेरा शरीर इतना क्षीण और शिथिल है कि मैं श्री महावीरजी नही पहुँच सकता था। इस वृपादित्यको प्रखरताने मेरे शरीरको विशेष अस्वस्थ कर दिया हैं । देखता हूँ कि यह क्षीणता केवल कुछ ही कालमे शान्त होती है या नही । आपके पुण्य-पीयूपपूर्ण अन्त करणकं स्मृति मेरे कृतज्ञ मानसपटपर सुवर्ण अक्षरोमे दिव्यता दे रही है, यदि आपने स्वत ही वैसा उपकार न कराया होता तो निश्चयत शरीर हो पर्य्यवसानको प्राप्त हो गया होता । 'समन्तभद्रत्वमयोऽस्ति जात ये युगवीर - मगलकामनाष्टक वर्णित उद्गार पूर्णत साधार हैं । समन्तभद्रभारती अभी नही छप पाई है । मुझे सतनासे श्री नीरजजीने लिखा कि छपाई हेतु अर्थ-व्यवस्था हो जानेपर आपका समाचार दूंगा । वे समाचार मुझे अब तक नही मिले हैं । मैंने उक्त समन्तभद्र-भारती ( मूल ) के प्राक्कथनमे आपका सक्षिप्त उदात्त परिचय देते हुए पाठकोको सकेत दिया था कि इन ग्रन्थो के रहस्योको वे आपके द्वारा विरचित हिन्दी टीकाओका अध्ययन करके अपने जीवनको धन्य बनावें । आपके द्वारा विरचित समन्तभद्र - स्तोत्रको भी मैंने ग्रन्थके अन्त मे दे दिया था । श्री