________________
सन्मति-विद्या-विनोद व्यक्त कर दी। इससे मुझे बडा सन्तोप हुआ, क्योकि मैं सङ्कोचादिके वश अनिच्छापूर्वक किसी ऐसी चीजको खाते रहना स्वास्थ्यके लिये हितकर नही समझता, जो रुचिकर न हो। और मेरी हमेशा यह इच्छा रहती थी कि तुम्हारी स्वाभाविक इच्छाओका विघात न होने पावे और अपनी तरफसे कोई ऐसा कार्य न किया जाय जिससे तुम्हारी शक्तियोके विकासमे किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित हो या तुम्हारे आत्मापर कोई बुरा असर अथवा सस्कार पडे । ___ जव तुम नानौतासे मेरे तथा दादी आदिके साथ देहली होती हुई पिछली बार २२ मई सन् १९२० को सरसावा आई तब मैंने तुम्हे यो ही विनोदरूपमे अपनी लायब्रेरीकी कुछ अलमारियाँ खोलकर दिखलाई थी, देखकर तुमने कहा था "तुम्हारी यह अलमारी बड़ी चोखी है।" इसपर मैंने जब यह कहा कि 'बेटी। ये सब चीजें तुम्हारी है, तुम इन सब पुस्तकोको पढना' तब तुमने तुरन्त ही उलट कर यह कह दिया था कि "नही, तुम्हारी ही हैं तुम्ही पढना।" तुम्हारे इन शब्दोको सुनकर मेरे हृदयपर एकदम चोट-सी लगी थी और मैं क्षणभरके लिये यह सोचने लगा था कि कही भावीका विधान ही तो ऐसा नही जो इस बच्चीके मुंहसे ऐसे शब्द निकल रहे है। और फिर यह खयाल करके ही सन्तोप धारण कर लिया था कि तुमने आदर तथा शिष्टाचारके रूपमे ही ऐसे शब्द कहे हैं। इस वातको अभी महीनाभर भी नही हुआ था कि नगरमे चेचकका कुछ प्रकोप हुआ, घरपर भाई हीगनलालजीकी लडकियोको एक-एक करके खसरा निकला तथा कठी नमूदार हुई और उन सबके अच्छा होनेपर तुम्हे भी उस रोगने आ