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युगवीर-निबन्धावली
तुम्हारी शिक्षा वैसे तो तीसरे वर्ष ही प्रारम्भ हो गई थी परन्तु कन्यापाठशालामे तुम्हे पाँचवे वर्प विठलाया गया था। यह कन्यापाठशाला देववन्द की थी, जहाँ सहारनपुरके वाद सन् १९०५ मे मैं मुख्तारकारीकी प्रेकटिस करनेके लिये चला गया था और कानूगोयानके मुहल्लेमे ला० दुल्हाराय जैन साविक पटवारीके मकानमे उसके सूरजमुखी चौबारेमे रहता था। निद्धी पण्डित, जो तुम्हे पढ़ाता था, तुम्हारी बुद्धि और होशयारीकी सदा प्रशसा किया करता था। मुझे तुम्हारे गुणोमे चार गुण बहुत पसन्द थे.--१ सत्यवादिता, २. प्रसन्नता, ३ निर्भयता और ४ कार्य-कुशलता। ये चारो गुण तुममे अच्छे विकसित होते जा रहे थे । तुम सदा सच वोला करती थी और प्रसन्नचित्त रहती थी। मैंने तुम्हे कभी रोते-रडाते अथवा जिद्द करते नही देखा। तुम्हारे व्यवहारसे अपने-पराये सब प्रसन्न रहते थे और तुम्हे प्यार किया करते थे। सहारनपुर मुहल्ले चौधरियानके ला० निहालचन्दजी और उनकी स्त्री तो, जो मेरे पासकी निजी हवेलीमे रहते थे, तुमपर बहुत मोहित थे, तुम्हे अक्सर अपने पास खिलाया-पिलाया और सुलाया करते थे, उसमे सुख मानते थे
और तुम्हे लाडमे 'सबजी' कह कर पुकारा करते थे-तुम्हारे कानोकी बालियोमे उस वक्त सबजे पडे हुये थे। जब कभी मैं रातको देरसे घर पहुँचता और इससे दहलीजके किवाड बन्द हो जाते तव पुकारनेपर अक्सर तुम्ही अँधेरेमे हो ऊपरसे नीचे दौडी चली आकर किवाड खोला करती थी। तुम्हे अँधेरेमे भी डर नही लगता था, जब कि तुम्हारी मां कहा करती थी कि मुझे तो डर लगता है, यह लडकी न मालूम कैसी निडर निर्भय प्रकृतिकी है जो अँधेरेमे भी अकेली चली जाती है। तुम्हारी इस हिम्मतको देखकर मुझे बडी प्रसन्नता होती थी।