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युगवीर-निवन्धावली को जन्म दिया है, समाजकी निद्राभग करनेके लिये वकालतके अवकाश-समयमे कई बार स्वय उपदेशकी दौरा किया है, जिसमे एकबार मुझे भी शामिल होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
जैनग्रन्थोके प्रकाशनका आपने ही महान वीडा उठाया था और उसके लिये जानको हथेलीपर रखकर वह गुरुतर कार्य किया है जिसका सुमधुर फल, ज्ञानके उपकरण शास्त्रोकी सुलभप्राप्तिके रूपमे, आज सारा जनसमाज चख रहा है। इस कार्यको सफल वनानेमे आपको वडी-बड़ी कठिनाइयो-मुसीबतोका सामना करना पडा है, यातनाएं झेलनी पड़ी है, जानसे मार डालनेकी धमकोको भी सहना पड़ा है, आर्थिक हानियाँ उठानी पड़ी हैं, गुरुजनो तथा मित्रोके अनुरोधको भी टालना पडा है, और जातिसे बहिष्कृत होनेका कडवा घूट भी पीना पडा है, परन्तु यह सब उन्होने बडी खुशीसे किया--अन्तरात्माकी प्रेरणाको पाकर किया। वे अपने ध्येय एव निश्चयपर अटल-अडोल रहे और उन्होने कई बार अपनी सत्यनिष्ठा एवं तर्कशक्तिके बलपर न्यायदिवाकर पं० पन्नालालजीको बादमे परास्त किया, जो तबके समाजके सर्वप्रधान विद्वान समझे जाते थे।
इसी सम्वन्धमे उन्हे हिन्दी जैनगटको सम्पादकीसे इस्तीफा देना पडा, जो कि महासभाका पत्र था, और तब आपने 'ज्ञानप्रकाशक' नामका अपना एक स्वतत्र हिन्दीपत्र जारी किया था इसी अवसरके लगभग आपने देवबन्दमे, जहां वकालत करते थे, जैनसिद्धान्तोके प्रचारके लिये एक मडल कायम किया था, जिसके द्वारा कितने ही जैनग्नन्य छपकर प्रकाशित हुए हैं। आपसे ही प्रोत्तेजन पाकर आपके रिश्तेदार ( समधी ) बाबू ज्ञानचन्द्रजीने लाहौरमे जैनग्रथोके प्रकाशनका एक कार्यालय