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युगवीर-निवन्धावली
रहस्य जानना चाहिये और यह मालूम करना चाहिये कि धार्मिक और लौकिक प्रगति किस प्रकारसे हो सकती है। यदि उस समयकी जाति-विरादरी उक्त दोनो व्यसनासक्त व्यक्तियोको अपनेमे आश्रय न देकर उन्हे अपनेसे पृथक् कर देती, घृणाकी दृष्टिसे देखती और इस प्रकार उन्हे सुधरनेका कोई अवसर न देती तो अन्तमे उक्त दोनो व्यक्तियोका जो धार्मिक जीवन बना है वह कभी न बन सकता। अत ऐसे अवसरोपर जातिबिरादरीके लोगोको सोच-समझकर, बडी दूरदर्शिताके साथ काम करना चाहिये। यदि वे पतितोका स्वय उद्धार नही कर सकते तो उन्हे कम-से-कम पतितोके उद्धारमे बाधक तो न बनना चाहिये और न ऐसा अवसर ही देना चाहिये जिससे पतित-जन और भी अधिकताके साथ पतित हो जायँ ।"
पाठक-जन देखे और खूब गौरसे देखें, यही वह लेख है जिसकी बाबत समालोचकजीने प्रकट किया है कि उसमे खूब ही वेश्यागमनकी शिक्षा दी गई और सबको उसका खुल्लमखुल्ला उपदेश दिया गया है, अथवा उसके द्वारा वेश्या तकको घरमे डालनेकी प्रवृत्ति चलाना चाहा गया है। वेश्यागमनकी खूब ही शिक्षा और उपदेश देना तो दूर रहा, लेखमे एक भी शब्द ऐसा नही है जिसके द्वारा वेश्यागमनका अनुमोदन या अभिनदन किया गया हो अथवा उसे शुभकर्म बतलाया गया हो। प्रत्युत इसके, चारुदत्त और उस वेश्याको "दो व्यसनासक्त . व्यक्ति" तथा "पतित-जन' सूचित किया है, वेश्याको "नीच स्त्री" और उसकी पूर्व परिणतिको ( १२ व्रतोके ग्रहणसे पहले वेश्याजीवनकी अवस्थाको) "नीच परिणति" बतलाया है और एक वेश्या जैसी नीच स्त्रीको खुल्लमखुल्ला घरमे डाल लेनेके