________________
जैनजातिका सूर्य अस्त
उस दिन २१ सितम्बर १९४५ को, जब मैं सहारनपुर जा रहा था, मुझे दो कोने कटे पत्र एक साथ मिले-एक चिरजीव कुलवन्तरायका और दूसरा चिरञ्जीव सुखवन्तरायका। दोनो सुहृद्वर बाबू सूरजभानजी वकीलके पुत्र, और दोनोके पत्रोमें एक ही दुःसमाचार-'१६ सितम्बरको पूज्य पिताजीका स्वर्गवास हो गया !' मैं देखकर धकसे रह गया !! सहारनपुर गया जरूर, परन्तु चिरसाथीके इस वियोग-समाचारसे चित्तको ऐसा धक्का लगा कि वह उदास हो रहा और उससे उत्साहके साथ कुछ करते धरते नही बना-जैसे तैसे वहाँके कामको निपटाकर चला आया। आकर प० दरबारीलालजी पर इस दुःखद समाचारको प्रकट किया और बाबूजीके गुणोकी कुछ चर्चा की। पं० परमानन्दजी नजीबाबाद गये हुए थे-उन्हे सहारनपुरसे ही इस दुर्घटनाकी सूचनाका पत्र दे दिया था। रातको जल्दी ही सोनेके लिये लेटा और इस तरह चित्तको कुछ हलका करना चाहा, तो बाबू साहबकी स्मृतियोने आ घेरा-चित्रपटके ऊपर चित्रपट खुलने लगे, उनका तातासा बँध गया, मैं परेशान होगया और तीन बज गये । आखिर जीवन के अधिकाश भागका सम्बन्ध ठहरा, इस अर्सेमे न मालूम बाबूजी-सम्बन्धी कितने चित्र हृदय-पटलपर अकित हुए हैं, कितने उनमेसे हृदयभूमिमे दबे पडे है, कितनै विस्मृतिसे घिस घिसकर मिट गये अथवा धुंधले पड़ गये हे और कितने अभी सजीव है, कुछ समझमे नही आता । चित्रपटोके आवागमनको रोकनेकी बहुत चेष्टा की परन्तु सब