________________
६८२
युगवीर-निबन्धावली
सहयोगी जैन हितैषीकी यह कार्रवाई बहुत अनुचित तथा असभ्यता-मूलक अँची और इसलिये मैंने जैनगजटके जनवरीफरवरी १६०८ के अंकोमे जनहितैषीकी कडी आलोचनाएँ प्रकाशित की थी जिनके फलस्वरूप उसका वह कीचड उछालना और भण्डप्रलाप बन्द हुआ था।
यद्यपि ब्रह्मचारीजीके साथ मेरा अनेक बातोमे मतभेद तथा विचारभेद चलता था और उसे लेकर मैने अनेक प्रकारसे उनकी आलोचना की है-उनके लेखोपर टीका-टिप्पणी लिखी है और 'ब्रह्मचारीजीकी विचित्र स्थिति और अजीव निर्णय' जैसे विरोधी लेख भी लिखे हैं परन्तु इन सबके कारण परस्परमे मनोमालिन्य तथा व्यक्ति-गत द्वेपको कभी स्थान नहीं मिला। ब्रह्मचारीजी जब कभी मुझसे मिलते थे बडे आदर तथा प्रेमके साथ मिलते थे, पत्र भी आदर-प्रेमके साथ लिखते थे और अनेक अवसरोपर कुछ ग्रन्थियोको सुलझाने तथा अनुसधानविशेषके लिये प्रेरणा भी किया करते थे। देहलीमें मेरे द्वारा 'समन्तभद्राश्रम' के खोले जाने और उससे 'अनेकान्त' पत्रकी प्रथम किरणके प्रकाशित हो जानेपर आप मेरे पास आश्रममे आये थे और आपने आश्रमका निरीक्षण करके अपना पूर्ण सन्तोष व्यक्त करते हुए जो रिपोर्ट १६ दिसम्वर १६२६ के जैनमित्र वर्ष ३१, अंक ६ मे प्रकाशित की थी उसमें उन लोगोको, जो जैन-धर्मकी सेवा द्वारा अपना जीवन सफल करना चाहते हैं, यह खास प्रेरणा की थी कि उन्हे अवश्य इस आश्रममे रहकर कर्मयोगी
१. देखो, जैनगजट वर्ष १३, अक २, ३, ७ में प्रकाशित 'जैनमित्र वम्बईकी समालोचना', 'जैनहितैपी और जैनमित्र', 'जैनहितैषीका मुँह छिपाना, शीर्षक लेख ।