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युगवीर-निबन्धावली
आज तक नहीं हुआ, शास्त्र-भण्डारोमे सभी प्रकारके ग्रन्थ पाये जाते हैं और वे सभीके पटने-सुनने में आते हैं । अत वहिष्कारका यह तरीका ठीक नहीं है-यह तो दूसरोंके विचारोपर अकुश लगाना अथवा अपने विचारोको बिना किसी युक्तिके उनपर लादना कहा जा सकता है । समुचित तरीका यह है कि सोनगढमे प्रकाशित साहित्यमे जहां कही भी आगम तथा युक्तिके विरुद्ध कथन हो उसे प्रेमपूर्वक युक्तिपुरस्सर-ढगसे स्पष्ट करके बतलाया जाय और उसका खूब प्रचार तथा प्रसार किया जाय । इससे त्रुटियो एव मूल-भ्रातियोका सहज सुधार हो सकेगा और समाजका वातावरण दूपित नहीं होने पायेगा।
इन्दौरके जिन ६ सज्जनोने उक्त वक्तव्य अथवा घोपणादिपर सही की है वे सब अपनी गोठका पूर्णत प्रतिनिधित्व करते हैं और उसी गोठमे दूसरा कोई व्यक्ति ऐसा नही जो कानजी स्वामीकी किसी भी वातसे कोई विरोध न रखता हो, ऐसा वक्तव्यसे कुछ मालूम नहीं होता। उसमे दूसरे व्यक्तियोके लिए 'विघ्नसतोपो' जैसे शब्दोका प्रयोगकर उनपर व्यग कसा गया है, जबकि दूसरोके व्यगात्मक-शब्दोकी शिकायत की जाती है। विरोधमे भाग लेनेवाले कुछ विद्वानो तथा त्यागियोपर विना किसी प्रमाणके यह भी आरोप लगाया गया है कि वे "वस्तु-तत्त्वके गूढतम भावपर न पहुँचते हुए कपायान्वित होकर ऐसी प्रक्रियाको बल देते हैं और अनर्गल वातें समाचारपत्रोमे छपवाकर समाजमे अशान्ति एव कलह पैदा करते हैं।" इस प्रकारका आरोप तथा वचन-व्यवहार भी शान्तिके इच्छुकोके लिए उचित मालूम नहीं होता और इस तरह उक्त वक्तव्यकी स्थिति भी प्राय दूसरोके उन हैंड-बिलो जैसी ही हो जाती है जिनपर वक्तव्यमै आपत्ति की गई है। इसीसे अशाति दूर होनेमे