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युगवीर-निवन्धावली
भी कुछ ग्रन्थ तो उनमेसे बिलकुल ही जालो और वनावटी हैं, जैसा कि 'जिनसेनत्रिवर्णाचार' और 'भद्रवाहसंहिता' के परीक्षालेखो से प्रगट हैं । वास्तवमे ये सब ग्रन्थ एक प्रकारके लौकिक ग्रन्थ है। इनमे प्रकृत विपयके वर्णनको तात्कालिक और तद्देशीय रीति-रिवाजोका उल्लेख मात्र समझना चाहिये, अथवा यो कहना चाहिये कि ग्रन्थकर्ताओको उस प्रकारके रीति-रिवाजोको प्रचलित करना इष्ट था। इससे अधिक उन्हे और कुछ भी महत्त्व नही दिया जासकता-वे आजकल प्रायः इतने ही कामके हैं-एकदेशीय, लौकिक और सामयिक ग्रन्थ होनेसे उनका शासन सार्वदेशिक और सार्वकालिक नही हो सकता । अर्थात्, सर्व देशो और सर्व समयोके मनुष्योके लिये वे समानरूपसे उपयोगी नही हो सकते । और इसलिये केवल उनके आधारपर चलना कभी युक्तिसंगत नही कहला सकता।
विवाह-विषयमे आगमका मूल विधान सिर्फ इतना ही पाया जाता है कि वह गृहस्थाश्रमका वर्णन करते हुए गृहस्थके लिये आमतौरपर गृहिणीकी अर्थात् एक स्त्रीकी जरूरत प्रकट करता है। वह स्त्री कैसी, किस वर्णकी, किस जातिकी, किन-किन सम्बन्धोसे युक्त तथा रहित और किस गोत्रकी होनी चाहिये अथवा किस तरहपर और किस प्रकारके विधानोके साथ विवाहकर लानी चाहिये, इन सब बातोमे आगम प्राय. कुछ भी हस्तक्षेप नहीं करता। ये सब विधान लोकाश्रित हैं, आगमसे इनका प्रायः कोई सम्वन्ध विशेष नही है । यह दूसरी बात है कि आगममे किसी घटना-विशेषका उल्लेख करते हुए उनका उल्लेख
१. ये सव लेख 'ग्रन्थपरीक्षा' नामसे पहले जैनहितैषी पत्रमे प्रकाशित हुए थे, बादको अलग पुस्तकाकार भी छप गये हैं।