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युगवीर - निवन्धावली
सन्देह करने लगे हैं । इससे उनके दिलपर भारी चोट लगी, और इसलिये उन्होने अपनी दुख-दर्दभरी पुकार समाजके उक्त पदवीधर विद्वानो से कतिपय प्रतिष्ठित एव जैनधर्मके कर्णधार विद्वानोके पास पहुँचाई -- कुछसे साक्षात् मिलकर अपना रोना रोया और कुछको पत्रो द्वारा उक्त लेखोका युक्ति-पुरस्सर उत्तर देनेकी प्रेरणा की । परन्तु कही से भी उन्हे कोई आश्वासन अथवा सन्तोषजनक उत्तर नही मिला। जो उत्तर मिले वे इस टाइपके थे-
" (१) जैनजगत्को पढना ही नही चाहिये, (२) जैनजगत्के लेखोका उत्तर न देना ही उसका उत्तर है, (३) व्यर्थके टटोमे पडने की अपेक्षा स्वाध्याय करके अपना आत्मकल्याण करना ही श्रेयस्कर है, (४) आप भी अनुभवी वयोवृद्ध हैं, आप ही लिखिये, (५) लिखने दो, कहाँ तक लिखते हैं, सवका उत्तर एक साथ हो जायगा, (६) हमको पढाने सम्बन्धी कार्य से अवकाश नही मिलता और मस्तिष्क थक जाता है ।"
इससे दुखित और खेदखिन्न होकर उन्होंने "जैनविद्वानोके मौनसे धार्मिक हानि" नामकी एक जोरदार पुकार, अपने और त्यागमूर्ति बाबा भागीरथजी वर्णीके हस्ताक्षरोसे १८ अक्टूबर सन् १९३४ के “जैनमित्र" मे प्रकाशित कराई । इस पुकारमे, प० दरबारीलालजी के लेखोकी प्रकृति, उनसे होनेवाले बुरे असर, अमुक-अमुक जैन - सिद्धान्तोपर कुठाराघात, अनेक कॉलेजके विद्यार्थियों और शिक्षित सद्गृहस्थोसे मिलनेका सक्षिप्त हाल और उनकी सबसे बडी दलील सागरमे प० दरबारीलालजीसे
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१ उस दलीलमें, समाजके प्रधान प्रधान न्यायाचायों, न्यायालङ्कारों और सिद्धान्तशास्त्रियोके नामों का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है। कि 'नव समाजमे ऐसे ऐसे दिग्गज विद्वान् मौजूद है और उक्त लेखमाला