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चिन्ताका विषय अनुवाद
सम्पादकोको भी अधिक सावधान होने और अपनी प्रवृत्तिमे कुछ सुधार करनेकी जरूरत है। उन्हे अपने कर्तव्यका-अपनी जिम्मेदारीका-~~-दृढताके साथ पालन करना चाहिये, अपने शब्दोका मूल्य समझना चाहिये और किसी भी अनुवाद-गन्थकी अच्छी जॉच किये बिना वैसे ही उसकी प्रशसाके पुल न वाँध देने चाहिये। ऐसा होनेपर समाजके हित तथा साहित्यकी रक्षा होगी और अनुवाद-कार्य भी वहुत-कुछ उन्नत हो सकेगा।
धर्मके प्रेमी और समाजका हित चाहनेवाले अनुवादकोके लिये ऐसी सत्य-समालोचनाओसे विचलित या अप्रसन्न होनेकी कोई वजह नही हो सकती। उन्हे उलटा समालोचकोका उपकार मानते हुए अपनी त्रुटियोको दूर करने और उसके फलस्वरूप अच्छे अनुवादक बननेका भरसक प्रयत्न करना चाहिये । इसीमें उसका तथा समाजका हित और कल्याण है। इसके सिवाय, प्रकाशकोको भी चाहिये कि वे, जहॉतक बन सके, मूलग्रथके साथ ही अनुवादको प्रकाशित किया करें और प्रकाशनसे पहले एक-दो अच्छे विद्वानोको दिखलाकर उसकी जाँच भी करा लिया करें। ऐसा होनेपर मूलग्रन्थोका उद्धार होगा, विद्वानोको अनुवादोके जाँचनेमे सहायता मिलेगी और प्रकाशकोको भी कोई हानि उठानी नही पडेगी। प्रत्युत इसके, उनके प्रकाशनोकी साख और प्रामाणिकता बढेगी।
आशा है समाजके विद्वान, पत्र-सम्पादक, अनुवादक और प्रकाशक सभी इस समयोचित सूचना तथा प्रार्थनापर ध्यान देंगे और अपने-अपने कर्तव्यका पालन करते हुए समाजहितवृद्धिका यत्न करेंगे।
१ जैनजमत, ता० १६-१-१९२६