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युगवीर-निवन्धावली परस्पर स्त्री-पुरुष होकर रहा करते थे और इतने पुण्याधिकारी समझे जाते थे कि मरनेपर उनके लिये नियमसे देवगतिका विधान किया गया है। फिर वह समय भी आया, जब उक्त प्रवृत्तिका निपेध किया गया और उसे अनुचित ठहराया गया। परन्तु उस समय गोत्र-तो-गोत्र एक कुटुम्वमे विवाह होना, अपनेसे भिन्न वर्णके साथ शादीका किया जाना और शूद्र ही नही किन्तु म्लेच्छो तककी कन्याओसे विवाह करना भी अनुचित नही माना गया । साथ ही, मामा-फूफीकी कन्याओसे विवाह करनेका तो आम दस्तुर रहा और वह एक प्रशस्त विधान समझा गया । इसके बाद समयके हेरफेरसे उक्त प्रवृत्तियोका भी निषेध प्रारम्भ हुआ, उनमें भी दोष निकलने लगे--पापोकी कल्पनाये होने लगी---और वे सब बदलते-बदलते वर्तमानके ढाँचेमे ढल गईं। इस अर्सेमे सैकडो नवीन जातियो, उपजातियो और गोत्रोकी कल्पना होकर विवाहक्षेत्र इतना सङ्कीर्ण बन गया कि उसके कारण आजकलकी जनता बहुत कुछ हानि तथा कष्ट उठा रही
और क्षतिका अनुभव कर रही है उसे यह मालूम होने लगा है कि कैसी-कैसी समृद्धिशालिनी जातियाँ इन वर्तमान रीतिरिवाजोके चडगुल में फंसकर ससारसे अपना अस्तित्व उठा चुकी हैं और कितनी मृत्युशय्यापर पड़ी हुई हैं---इससे अव वर्तमान रीति-रिवाजोके विरुद्ध भी आवाज उठनी शुरू हो गई है। समय उनका भी परिवर्तन चाहता है।
सक्षेपमे यदि सम्पूर्ण जगत्के भिन्न-भिन्न देशो, समयो और जातियोके कुछ थोडे-थोडेसे ही उदाहरण एकत्र किये जायें तो विवाह-विधानोमे हजारो प्रकारके भेद-उपभेद और परिवर्तन
१. यह कथन उस समयका है जवकि यहाँ भोगभूमि प्रचलित थी।