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नया सन्देश
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बने हुए नही ? और क्या अनेक विषयोमे, अज्ञानादि किसी भी कारणसे, बहुतसे आचार्योंमे परस्पर मतभेद नही रहा है ? यदि यह सब कुछ हुआ है तो फिर सत्यकी जाँचके लिए अथकी परीक्षा, मीमासा और समालोचना आदिके सिवा दूसरा और कौन-सा अच्छा साधन है जिससे यथेष्ट लाभ उठाया जा सके ? शायद इसी स्थितिका अनुभव करके किसी कविने यह वाक्य कहा है :जिनमत महल मनोज्ञ अति, कलियुग छादित पन्थ । समझ-बूझके परिखियो चर्चा - निर्णय - ग्रन्थ ।।
इस वाक्यमे साफ तौरसे हमे जैन ग्रन्योकी अच्छी तरहसे परीक्षा और समालोचना करके उनके विषयको ग्रहण करनेको सलाह दी गई है और उसका कारण यह बतलाया गया है कि जैनधर्मका वास्तविक मार्ग आजकल आच्छादित हो रहा हैकलियुगने उसमे तरह-तरहके कांटे और झाड खडे कर दिये हैं, जिनको साफ करते हुए चलनेकी जरूरत है। प० आशाधरजीने 'अनगारधर्मामृत' की टोकामे किसी विद्वान्का जो निम्न प्राचीन वाक्य उद्धृत किया है वह भी ध्यानमें रखे जानेके योग्य है--
पण्डितैर्धष्ट - चारित्रैठरैश्च तपोधनैः ।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥
इस वाक्यमे सखेद यह बतलाया गया है कि जिनेन्द्र 'भगवान्के निर्मल शासनको भ्रष्टचारित्र-पडितो और धूर्त-मुनियोने मलीन कर दिया है। और इससे भी यही ध्वनित होता है कि हमे जैन-ग्रन्थोके विषयको बडी सावधानीके साथ, खूब परीक्षा
और समालोचनाके बाद, ग्रहण करना चाहिये, क्योकि उक्त महात्माओकी कृपासे जैनशासनका निर्मलरूप बहुत कुछ मैला हो रहा है । ऐसी हालतमे मालूम नहीं होता कि सेठ साहब नोंकी