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युगवीर - निबन्धावली
दूसरे जैन - विद्वानोके संस्कृत वाक्योको उद्धृत किया गया है और इसलिये वैसा मानने पर यह वात नही बनती कि उमास्वाति संस्कृतको अपनानेवाले जैन ग्रथकारोमं प्रथम थे। मुझे तो अभी इसपर काफी सन्देह है, क्योकि धवलादिकग्रंथो में संस्कृतके कुछ ऐसे प्राचीन सूत्र तथा प्रबन्धादि भी उपलब्ध होते हैं जो अपनी रचना - शैली आदि परसे उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रसे प्राचीन जान पडते हैं, और जिसका एक नमूना 'प्रमाणनर्वस्त्वधिगम ' नामका सूत्र है जो उमास्वातिके 'प्रमाणनयैरधिगम' सूत्रसे मिलता-जुलता है और जिसे उद्धृत करते हुए धवलामे लिखा है कि " इत्यनेन सूत्रेणापि नेदं व्याख्यानं विघटते" ( आरा प्रति, पृष्ठ ५४२ --- अर्थात् इस सूत्र से भी यह व्याख्यान ( स्पष्टीकरण ) बाधित नही होता |
सातवी धारामं स्याद्वाद - सिद्धान्तका आठ पृष्ठोपर अच्छा उपयोगी विवेचन किया गया है, नयवादादिको दृष्टियोको स्पष्ट करते हुए प्राचीन साहित्यमे, नयवाद तथा स्याद्वादकी खोज की गई है और साथ ही इस बातकी जाँच की गई है कि स्याद्वादके प्रतिरूप अन्यत्र कहाँ पर उपलब्ध होते हैं । इस सिलसिलेमे प्रोफेसर ए० वी० ध्रुव महोदयकी दो धारणाओको गलत सिद्ध किया है -- एक यह कि स्याद्वादका प्रारम्भ अजैनोसे हुआ है और दूसरी यह कि वेदान्त के 'अनिर्वचनीयता' सिद्धान्तने जैनोके स्याद्वादको जन्म दिया है । साथ ही, यह भी बतलाया है कि जहाँ तक अर्धमागधीकोशसे पता चलता है 'स्याद्वाद' या 'सप्तभगी' शब्द श्वेताम्बरीय आगम साहित्यमे नही पाया जाता है, परन्तु फिर भी उसके बीज वहाँपर मौजूद हैं। प्रो० ध्रुवने जो यह कहा है कि 'सूत्रकृताङ्गनिर्युक्ति' मे 'स्याद्वाद' का उल्लेख है वह ठीक नही है और सभवत
११८ वे पद्यमे आए हुए