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प्रवचनसारका नया सस्करण
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जा सकती हैं-१ नमस्काराद्यात्मक, २ व्याख्यान-विस्तारविषयक और ३ अपरविषय-विज्ञापनात्मक । साथ ही, यह भी प्रकट किया गया है कि प्रथम दो विभागोकी कुछ गाथाएँ ऐसी तटस्थ प्रकृतिकी हैं कि उनका अभाव महसूस नहीं होता और यदि वे मौजूद रहे तो उनसे प्रवचनसारके विषयमे वस्तुत कोई खास वृद्धि नहीं होती और इसलिये तृतीय विभागकी गाथाएँ ही खास तौरसे विचारणीय है। इन गाथाओमे १४ गाथाएँ ऐसी है जो निम्रन्य साधुओके लिये वस्त्र-पात्रादिका और स्त्रियो के लिये मुक्तिका निषेध करती हैं। इन गाथाओका विषय, यद्यपि, कुन्दकुन्दके दूसरे ग्रन्थोके विरुद्ध नही है-प्रत्युत अनुकूल है-परन्तु श्वेताम्वर सम्प्रदायके विरुद्ध जरूर है और इसलिये अमृतचन्द्राचार्यके द्वारा इनके छोड़े जानेके विषयमे प्रोफेसर साहबने भावी अनुसधानके लिये यह कल्पना की है अथवा परीक्षार्थ तर्क उपस्थित किया है कि-'अमृतचन्द्र इतने अधिक आध्यात्मिक व्यक्ति थे कि साम्प्रदायिक वाद-विवादमे पडना नही चाहते थे और सभवत इस वातकी इच्छा रखते थे कि उनकी टीका, सदीप्त एव तीक्ष्ण साम्प्रदायिक आक्रमणोका विलोप करती हुई, कुन्दकुन्दके अति उदात्त उद्गारोके साथ, सभी सम्प्रदायोको स्वीकृत होवे।' इसमे सन्देह नही कि अमृतचन्द्र सूरि एक बडे ही अध्यात्मरसके रसिक विद्वान थे, परन्तु जहाँ तक मैं समझता हूँ, इसका यह अर्थ नही हो सकता और न इसके कारण उन पर ऐसा कोई आरोप ही लगाया जा सकता है कि उन्होने अपनी टीकाको सर्वसम्मत बनाने और साम्प्रदायिकवाद-विवादमे पडनेसे बचनेके लिये एक महान् आचार्यके गथकी टीका लिखनेकी प्रतिज्ञा करके भी उसके १. अमृतचन्द्र सूरिका वह प्रतिजा-वाक्य इस प्रकार है
क्रियत प्रकदिनतत्वा प्रवचनमारस्य वृत्तिरियम् ॥