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जयधवलाका प्रकाशन
'अत' के बाद वैकेटमें 'मगल' के स्थानपर 'सरागसयम' होना चाहिये था और निराकरण' को जगह 'परित्याग' शब्दका प्रयोग प्रकरणके अधिक अनुकूल रहता। और अन्तिम वास्यमें 'प्रसग' आता है' ऐसा जो अनुवाद दिया गया है वह भी आपतिके योग्य है; क्योकि उससे यह ध्वनि निकलती है 'मानो वह प्रसग सरागसयमके परित्यागकी तरह अनिष्ट है। परन्तु अरहन्तोके नमस्कारमे मुनियोकी प्रवृत्तिका होना कोई अनिष्ट नहीं है। अत उस प्रवृत्तिका 'प्रमग पाया जाता है' या 'प्रसग ठीक वैटना है' ऐसा कुछ अनुवाद होना चाहिये था। अथवा अनुवादका दुसरा ही ढग अख्तियार किया जाना चाहिये था।
इसी प्रकारसे अन्यत्र भी अनुवादकी त्रुटियाँ पाई जाती हैं, जो सब अनुवादको अन्यथा एव श्रीहीन बनाये हुए हैं और जिनका एक दूसरा नमूना मङ्गलाचरणकी पांचवी गाथाके अनुवादमे 'णमह' के लिये 'नमस्कार करो' शब्दोके प्रयोगसे व्यक्त होता है, जब कि प्रकरणको देखते हुए वहाँ 'नमस्कार करता हूँ' या 'नमस्कार है' ऐसा कुछ होना चाहिये था। क्योकि वहाँ ग्रन्यकार महोदय नमस्कारादि रूपसे स्वय मङ्गलाचरणं कर रहे हैं, न कि दूसरोको नमस्कारादिकी कोई प्रेरणा कर रहे है । 'णमह' का 'नमत' ऐसा । छायानुवाद भी ठीक नही है । छायानुवाद अन्यत्र भी कुछ ग्रुटिको लिये है, जैसे पहली मूलगाथा में प्रयुक्त हुए 'पेज्ज' शब्दका सस्कृतछायानुवाद 'पेज्ज' ही रख दिया गया है, जव कि वह 'प्रेय' होना चाहिये था।
(ड) मगलाचरणकी दूसरी गाथाके अनुवादमे लिखा है-'वे चौवीस तीर्थकर मुझपर प्रसन्न होवें'। यह शब्दानुवाद तो है, परन्तु अर्थानुवाद नही । ग्रथकारका यह कथन किस दृष्टिको लिये हुए है उसका इससे कोई स्पष्टीकरण नहीं होता। प्रश्न