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युगवीर-निबन्धावली भावोके अभावमे अथवा उस मार्गके कट जाने पर कोई शुद्धत्वको प्राप्त ही नहीं होता। शुभभावरूप मार्गका उत्थापन सचमुचमें जैनशासनका उत्थापन है--भले ही वह कैसी भी भूल, गलती, अजानकारी या नासमझीका परिणाम क्यो न हो, इस बातको में अपने उस लेखमे पहले प्रकट कर चुका हूँ। यहाँपर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षावत, सत्लेखना अथवा एकादश प्रतिमादिके रूपमे जो श्रावकाचार समीचीनधर्मशास्त्र ( रत्नकरण्ड ) आदिमे वर्णित है और पचमहाव्रत, पचसमिति, त्रिगुप्ति, पचेन्द्रियरोध, पचाचार, षडावश्यक, दशलक्षण, परीषहजय अथवा अट्ठाईस मूलगुणो आदिके रूपमे जो मुनियोका आचार, मूलाचार, चारित्तपाहुड और भगवती आराधना आदिमे वर्णित है, वह सब प्राय व्यवहारमोक्षमार्ग है और उसे धर्मेश्वर जिनेंद्रदेवने 'धर्म' या 'सच्चारित्र' कहा है, जैसा कि कुछ निम्न वाक्योसे भी जाना जाता है :
१. धर्म धर्मेश्वराविदुः । अभ्युदयं फलति सद्धर्मः ( रत्नकरण्ड) २. असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।
'वद-समिदि-गुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं (द्रव्यस० ) ३. एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं ।
सुद्धं सजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं वोच्छे ।। (चारित्तपा० ) ४ दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मो ण लावगो तेण विणा ।
झाणज्झयणं मुक्खं जाधम्मो तं विणा सो वि॥ (रयणसार) ५. एयारस-दसभेयं धम्म सम्मत्तपुब्वयं भणियं ।
सागारणगाराणं उत्तमसुहसंपजुत्तेहि ॥ (वारसाणुपेक्खा) "णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो।" ६ दशविधमनगाराणमेकादशधोत्तर तथा धर्म ।
देशयमानो व्यहरत् त्रिंशद्वर्गाण्यथ जिनेन्द्रः ॥ (निर्वाणभक्ति