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युगवीर - निवन्धावली
समान नही कहा जा सकता । दृष्टिका सबसे बड़ा भेद सम्यक् तथा मिथ्या होता है । वस्तुतत्त्वकी यथार्थ श्रद्धा को लिये हुए जो दृष्टि है वह सम्यग्दृष्टि है, जिसमे कारणविपर्यय स्वरूपविपर्यय तथा भेदाभेदविपय के लिए कोई स्थान नही होता और वह दृष्टि अनेकान्तात्मक होती है, प्रत्युत इसके जो दृष्टि वस्तुतत्त्व की यथार्थ श्रद्धाको लिये हुए नही होती, वह सब मिथ्यादृष्टि कहलाती हैं उसके साथ कारणविपर्ययादि लगे रहते हैं और वह एकान्तदृष्टि कही जाती है । सम्यग्दृष्टिके दान-पूजादिक के शुभभाव सम्यक्चारित्रका अग होने से धर्ममे परिगणित हैं, जबकि मिथ्यादृष्टि के वे भाव मिथ्याचारित्रका अग होने से धर्ममे परिगणित नही हैं । यही दोनोमे मोटे रूपसे अन्तर कहा जा सकता है । जो जैनी सम्यग्दृष्टि न होकर मिथ्यादृष्टि हैं उनकी ब्रियाएँ भी प्राय. उसी कोटिमे शामिल हैं ।
शंका १० - धर्म दो प्रकारका है - ऐसा जो आपने लिखा है तो उसका तात्पर्य तो यह हुआ कि यदि कोई जीव दोनोमेसे किसी एकका भी आचरण करे तो वह मुक्तिका पात्र हो जाना चाहिए, क्योकि धर्मका लक्षण आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने यही किया है कि जो उत्तम अविनाशी सुखको प्राप्त करावे वही धर्म है । तो फिर द्रव्यलिंगी मुनि मुक्तिका पात्र क्यो नही हुआ ? उसे मिथ्यात्व गुणस्थान ही कैसे रहा ? आपके लेखानुसार तो उसे मुक्तिकी प्राप्ति हो जानी चाहिये थी ?
समाधान --- यह शका भी कुछ बड़ी ही विचित्र जान पडती है । मैने धर्मको जिस दृष्टिसे दो प्रकारका बतलाया है उसका उल्लेख शका ७ के समाधान मे आ गया है और उससे वैसा कोई तात्पर्य फलित नही होता । द्रव्यलिंगीकी कोई क्रियाएँ मेरे लेख में