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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश और जनताको मिथ्या तथा अविचारितरम्य समालोचनासे उत्पन्न होनेवाले भ्रमसे सुरक्षित रखनेके लिये ही यह उत्तर-लेख लिखा जाता है। इससे विवाह-विषयपर और भी ज्यादा प्रकाश पडेगा-वह बहुत कुछ स्पष्ट हो जायगा--और उसे इस उत्तरका आनुषगिक फल समझना चाहिये।
सबसे पहले, मैं अपने पाठकोसे यह निवेदन कर देना चाहता हूँ कि जिस समय प्रचारकजीकी उक्त समालोचना-पुस्तक मुझे पहले-पहल देखनेको मिली और उसमे समालोच्य पुस्तककी वावत यह पढा गया कि वह "अत्यन्त मिथ्या, शास्त्रविरुद्ध और महापुरुपोको केवल झूठा कलक लगानेवाली" तथा "अस्पृश्य" है और उसमे "बिल्कुल झूठ," "मनगढत," "सर्वथा मिथ्या और शास्त्रविरुद्ध' कथाएँ लिखकर अथवा “सफेद झूठ' या "भारी झूठ" वोलकर "धोखा" दिया गया है, तो मेरे आश्चर्यकी सीमा नही रही । क्योकि, मैं अब तक जो कुछ लिखता रहा हूँ वह यथाशक्ति और यथासाधन बहुत-कुछ जांच-पडतालके वाद लिखता रहा हूँ। यद्यपि मेरा यह दावा नही है कि मुझसे भूल नही हो सकती, भूल जरूर हो सकती है और मेरा कोई विचार अथवा नतीजा भी गलत हो सकता है, परन्तु यह मुझसे नही हो सकता कि मैं जानबूझकर कोई गलत उल्लेख करूँ अथवा किसी बातके असली रूपको छिपाकर उसे नकली या बनावटी शकलमे पाठकोंके सामने उपस्थित करूँ। अपने लेखोकी ऐसी प्रकृति और परिणतिका मुझे सदा ही गर्व रहता है। मैं सत्य
१ समालोचकजी खुद पुस्तकको छूते हैं, दूसरोंको पढ़ने-छूनेके लिये देते हैं, कितनी ही वार श्रीमन्दिरजीमें भी उसे ले गये, परन्तु फिर भी अस्पृश्य वतलाते हैं ! 'किमाश्चर्यमत. परम्' "