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३३ हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५१३
उसकी क्रियासे आत्माको धर्म होता है-ऐसा जो देखता है ( मानता है ) उसे तो जनशासनकी गध भी नही है। तथा कर्मके कारण आत्माको विकार होता है या विकारभावसे आत्माको धर्म होता है-यह बात भी जैनशासनमे नही है।"
६ "आत्मा शुद्ध विज्ञानघन है, वह बाह्यमें शरीर आदिकी क्रिया नही करता, शरीरको क्रियासे उसे धर्म नहीं होता, कर्म उसे विकार नहीं करता और न शुभ-अशुभ विकारी भावोसे उसे धर्म होता है । अपने शुद्ध विज्ञानघन स्वभावके आश्रयसे ही उसे वीतरागभावरूप धर्म होता है।"
इस प्रकारके स्पष्ट वाक्थोकी मौजूदगी में यदि कोई यह समझने लगे कि 'कानजीस्वामी आत्माको 'एकान्तत अबद्धस्पृष्ट' बतलाते है तो इसमे उसकी समझको क्या दोप दिया जा सकता है ? और कैसे उस समझका उल्लेख करनेवाले मेरे उक्त शब्दोको आपत्तिके योग्य ठहराया जा सकता है ? जिनमे आत्माके 'एकान्ततः अबद्धस्पृष्ट' का स्पष्टीकरण करते हुए डैश (--) के अनन्तर यह भी लिखा है कि वह "सर्व प्रकारके कर्मबन्धनोसे रहित शुद्धबुद्ध है और उस पर वस्तुत किसी भी कर्मका कोई असर नहीं होता।" कानजीस्वामी अपने उपर्युक्त वाक्योमे आत्माके साथ कर्मसम्बन्धका और कर्मके सम्बन्ध से आत्माके विकारी होने अवथा उस पर कोई असर पडनेका साफ निषेध कर रहे हैं और इस तरह आत्मामें आत्माकी विभावपरिणमनरूप वैभाविकी शक्तिका ही अभाव नही बतला रहे, बल्कि जिनशासनके उस सारे कथनका भी उत्थापन कर रहे और उसे मिथ्या ठहरा रहे हैं जो जीवात्माके विभाव परिणमनको प्रदर्शित करनेके लिए गुणस्थानो जीवसमासो और मार्गणाओ आदिकी प्ररूपणाओमें