________________
५०६
युगवीर-निवन्धावली प्राप्त है या कि नही। श्री कुन्दकुन्द और स्वामी समन्तभद्र-जैसे महान् आचार्योंके ऐसे वाक्योको प्रमाण में उपस्थित किया गया था जो साफ तौरपर पूजा-दान-व्रतादिके भावो एव सम्यग्दृष्टिके सरागचारित्रको 'धर्म' प्रतिपादन कर रहे हैं, उन पर तो श्री बोहराजीने दृष्टि नही डाली अथवा उन्हे यो ही नजरसे ओझल कर दिया और कानजीस्वामीके ऐसे वाक्योको उद्धृत करने वैठे हैं जिनसे उनकी कोई सफाई भी नही होती। और इससे मालूम होता है कि आप उक्त महान् आचार्योंके वाक्योपर कानजोस्वामीके वाक्योको बिना किसी हेतुके ही महत्व देना चाहते हैं। यह श्रद्धा-भक्तिकी अति है 'और ऐसी ही भक्तिके वश कुछ भक्तजन यहाँ तक कहने लगे हैं कि 'भगवान् महावीरके बाद एक कानजीस्वामी ही धर्मकी सच्ची देशना करनेवाले पैदा हुए हैं, ऐसा सुना जाता है, मालूम नही यह कहाँ तक ठीक है। यदि ठीक है तो ऐसे भक्तजन, उत्तरवर्ती केवलियो श्रुतकेवलियो तथा दूसरे ऋद्धिधारी एव भावलिंगी महान् आचार्योकी अवहे. लनाके अपराधी हैं। अस्तु, कानजीस्वामीके जिन वाक्योको उद्धृत किया गया है वे पुण्य, पाप और धर्म के विवेकसे सम्बन्ध रखते हैं। उनमे वही एक राग अलापा गया है कि पुण्यकर्म किसी प्रकार धर्म नही होता, धर्मका साधन भी नहीं, बन्धन होनेसे मोक्षमार्गमे उसका निषेध है, पुण्य और पाप दोनोसे जो रहित है वह धर्म है। कानजीस्वामीने एक वाक्यमे व्यवहारसे पुण्यका निषेध न करनेकी बात तो कह दी, परन्तु उसे 'धर्म' कहकर या मानकर नही दिया, ऐसी एकान्त धारणा समाई है । जब कि श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, जिन्हे वे अपना आराध्य गुरुदेव बतलाते हैं, उसे धर्म भी प्रतिपादन करते हैं अर्थात् पूजादान