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युगवीर-निवन्धावली सविशेष रूपसे विधान है। स्वामी समन्तभद्रने, सम्यक्चारित्रके वर्णनमें उन्हे योग्य स्थान देते हुए, उनकी दृष्टिको निम्त वाक्यके द्वारा पहले ही स्पष्ट कर दिया है -
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । राग-द्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।।
इसमें बतलाया है कि 'मोहान्धकाररूप अज्ञानमय मिथ्यात्वका अपहरण होनेपर--उपशम, क्षय या क्षयोपशमकी दशाके प्राप्त होनेपर-सम्यग्दर्शनकी-निर्विकार दृष्टिकी-प्राप्ति होती है, और उस दृष्टिकी प्राप्तिसे सम्यग्ज्ञानको प्राप्त हुआ जो साधुपुरुष है वह राग-द्वेषकी निवृत्तिके लिए सम्यक्चारित्रका अनुष्ठान करता है। इससे स्पष्ट है कि जिस चारित्रका उक्तग्रन्थमें आगे विधान किया जा रहा है वह सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्ज्ञान-पूर्वक होता है उनके विना अथवा उनसे शून्य नही होता-और उसका लक्ष्य है राग-द्वेषकी निवृत्ति। अर्थात् राग-द्वेषकी निवृत्ति साध्य है और व्रतादिका आचरण, जिसमे पूजा-दान भी शामिल है, उसका साधन है। जब तक साध्यकी सिद्धि नही होती तब तक साधनको अलग नही किया जा सकताउसकी उपादेयता बराबर बनी रहती है। सिद्धत्वकी प्राप्ति होनेपर साधनकी कोई आवश्यकता नही रहती और इस दृष्टिसे वह हेय ठहरता है। जैसे कोठेकी छतपर पहुँचनेपर यदि फिर उतरना न हो तो सीढी ( नसेनी) बेकार हो जाती है अथवा अभिमत स्थानपर पहुँच जानेपर यदि फिर लौटना न हो तो मार्ग बेकार हो जाता है; परन्तु उससे पूर्व अथवा अन्यथा नहीं । कुछ लोग एकमात्र साधनोको ही साध्य समझ लेते हैं-असली साध्यकी ओर उनकी दृष्टि ही नही होती-ऐसे साधकोको लक्ष्य