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युगवीर-निबन्धावली रागको धर्म मानते हैं उन्हे 'लौकिक जन' और 'अन्यमती' कहा है" उनकी लपेट मे, जाने-अनजाने, श्री कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, उमास्वामी, सिद्धसेन, पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दादि सभी महान् आचार्य आ जाते हैं, क्योकि उनमेसे किसीने भी शुभभावोका जैनधर्म( जिनशासन )मे निषेध नही किया है, प्रत्युत इसके अनेक प्रकार से उनका विधान किया है और इससे उनपर ( कानजी स्वामीपर ) यह आरोप आता है कि उन्होंने ऐसे चोटीके महान् जैनाचार्योंको 'लौकिकजन' तथा 'अन्यमती' कहकर अपराध किया है, जिसका उन्हे स्वय प्रायश्चित्त करना चाहिये।
इसके सिवा, उनपर यह भी प्रकट किया गया था "कि अनेक विद्वानोका आपके विषयमे अब यह मत हो चला है कि आप वास्तवमे कुन्दकुन्दाचार्यको नही मानते, और न स्वामी समन्तभद्रजैसे दूसरे महान् जैन आचार्योको ही वस्तुतः मान्य करते हैंयो ही उनके नामका उपयोग अपनी किसी कार्यसिद्धिके लिए उसी प्रकार कर रहे हैं जिस प्रकार कि सरकार अक्सर गाधीजी के नामका करती है और उनके सिद्धान्तोको मानकर नहीं देती, और इस तरह एक दूसरे बडे आरोपकी सूचना की गई थी। साथ ही अपने परिचयमे आए कुछ लोगोकी उस आशकाको भी व्यक्त किया गया था जो कानजी स्वामी और उसके अनुयायियोकी प्रवृत्तियोको देखकर लोकहृदयोमे उठने लगी है और उनके मुखसे ऐसे शब्द निकलने लगे हैं कि "कही जैन-समाजमे यह चौथा सम्प्रदाय तो कायम होने नही जा रहा है, जो दिगम्बर, श्वेताम्बर
और स्थानकवासी सम्प्रदायोकी कुछ-कुछ ऊपरी बातोको लेकर तीनोके मूलमे ही कुठाराघात करेगा" ( इत्यादि)। और उसके बाद यह निवेदन किया गया था .