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हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ
प्राथमिक
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'समयसारकी १५वी गाथा और श्रीकानजी स्वामी' नामक मेरे लेख 'के तृतीय भाग को लेकर बा० हीराचन्दजी बोहरा बी० ए०, विशारद अजमेरने 'श्री प० मुख्तार सा० से नम्र निवेदन' नामका एक लेख अनेकान्त मे प्रकाशनार्थ भेजा है, जो उनकी इच्छानुसार अविकलरूपसे अनेकान्त वर्प १३ किरण ५ मे प्रकाशित किया गया है । लेखसे ऐसा मालूम होता है कि वोहराजीने मेरे पिछले दो लेखो को -- लेखके पूर्ववर्ती दो भागोको- नही देखा या पूरा नही देखा, देखा होता तो वे मेरे समूचे लेखकी दृष्टिको अनुभव करते और तब उन्हे इस लेखके लिखने की जरूरत ही पैदा न होती । मेरा समग्र लेख प्राय जिनशासनके स्वरूप-विषयक विचारसे सम्बन्ध रखता है और
१ यह लेख इस निबन्धावलीमें 'कानजी स्वामी और जिनशासन' नामसे मुद्रित है ।
२. 'क्या शुभभाव जैनधर्म नहीं ?'
३ अविकल रूपसे प्रकाशित करने में वोहराजीके लेखमें कितनी ही गलत उल्लेखादिके रूपमें ऐसी मोटी भूलें स्थान पा गई है जिन्हें अन्यथा ( सम्पादित होकर प्रकाशनकी दशामें ) स्थान न मिलता, जैसे 'क्या शुभ भाव जैनधर्म नहीं ?' इसके स्थान पर 'क्या शुभभाव धर्म नहीं ?' इसे लेखका उपशीर्षक बतलाना ।