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कानजी स्वामी और जिनशासन
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के गीत तो गाये जायेंगे, परन्तु शुद्धात्मा तक पहुँचनेका मार्ग पासमें न होनेसे लोग "इतो भ्रष्टास्ततो भ्रष्टा " की दशाको प्राप्त होगे, उन्हें अनाचारका डर नही रहेगा, वे समझेगे कि जब आत्मा एकान्तत अवद्धस्पृष्ट है-सर्व प्रकारके कर्म-बन्धनो से रहित शुद्ध बुद्ध है और उस पर वस्तुत किसी भी कर्मका कोई असर नही होता, तव वन्धनसे छूटने तथा मुक्ति प्राप्त करने का यत्न भी कैसा ? और पापकर्म जव आत्माका कुछ भी बिगाड नही कर सकते तब उनमे प्रवृत्त होनेका भय भी कैसा ? पाप ओर पुण्ष दोनो समान, दोनो ही अधम, तव पुण्प जैसे कष्ट साध्य कार्यमे कौन प्रवृत्त होना चाहेगा ? इस तरह यह चौथा सम्प्रदाय किसी समय पिछले तीनो सम्प्रदायोका हितशत्रु बनकर भारी सघर्ष उत्पन्न करेगा और जैन समाजको वह हानि पहुँचाएगा जो अब तक तीनो सम्प्रदायोके सघर्ष-द्वारा नही पहुँच सकी है, क्योकि तीनोमे प्राय कुछ ऊपरी बातो में ही सघर्ष है—भीतरी सिद्धान्त की बातोमे नही । इस चौथे सम्प्रदाय के द्वारा तो जिन- शासनका मूलरूप ही परिवर्तित हो जायगा -- वह अनेकान्तके रूपमे न रह कर आध्यात्मिक एकान्तका रूप धारण करनेके लिये वाध्य होगा ।
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यदि यह आशका ठीक हुई तो नि सन्देह भारी चिन्ताका विषय है और इसलिए कानजी स्वामीको अपनी पोजीशन और भी स्पष्ट कर देनेकी जरूरत है । जहाँ तक मैं समझता हूँ कानजी महाराजका ऐसा कोई अभिप्राय नही होगा जो उक्त चौथे जैनसम्प्रदायके जन्मका कारण हो । परन्तु उनकी प्रवचन - शैलीका जो रुख चल रहा है और उनके अनुयायियोकी जो मिशनरी प्रवृत्तियाँ आरम्भ हो गई हैं उनसे वैसी आशकाका होना अस्वाभाविक नही है और न भविष्य में वैसे सम्प्रदायकी सृष्टिको ही