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कानजी स्वामी और जिनशासन
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इसमे आचार्य जयसेनकी टीकानुसार, यह बतलाया गया है कि-'जो वस्त्रादि परिग्रहका त्यागकर निर्ग्रन्थ बन गया
और दीक्षा लेकर प्रवजित हो गया है ऐसा मुनि यदि ऐहिक कार्योंमे प्रवृत्त होता है अर्थात् भेदाभेदरूप रत्नत्रयभावके नाशक ख्याति-पूजा-लाभके निमित्तभूत ज्योतिष-मत्रवाद और वैद्यकादि जैसे जीवनोपायके लौकिक कर्म करता है, तो वह तप-सयमसे युक्त हुआ भी 'लौकिक' (दुनियादार) कहा गया है ।
इस लक्षणके अन्तर्गत वे आचार्य तथा विद्वान् कदापि नही आते जो पूजा दान-व्रतादिके शुभ भावोको 'धर्म' बतलाते हैं । तब कानजी महाराजने उन्हे 'लौकिक जन' ही नही, किन्तु 'अन्यमती' तक बतलाकर जो उनके प्रति गुरुतर अपराध किया है उसका प्रायश्चित्त उन्हे स्वय करना चाहिए। ऐसे वचनाऽनयके दोपसे दूपित निरर्गल वचन कभी कभी मार्गको बहुत बड़ी हानि पहुँचानेके कारण बन जाते हे। शुद्धभाव यदि साध्य है तो शुभभाव उसकी प्राप्तिका मार्ग है--साधन है। साधनके बिना साध्यकी प्राप्ति नही होती, फिर साधनकी अवहेलना कैसी ? साधनरूप मार्ग ही जैन तीर्थकरोका तीर्थ है, धर्म है, और उस मार्गका निर्माण व्यवहारनय करता है। शुभ-भावोके अभावमे अथवा उस मागके कट जानेपर कोई शुद्धत्वको प्राप्त नहीं होता। शुद्धात्माके गीत गाये जायें और शुद्धात्मा तक पहुँचनेका माग अपने पास हो नही, तब उन गोतोसे क्या नतीजा ? शुभभावरूप मार्गका उत्यापन सचमुच में जैनशासनका उत्थापन है और जैन तीर्थ के लोपकी ओर कदम बढाना है--भले ही वह कैसी भी भूल, गलती, अजानकारी या नासमझीका परिणाम क्यो न हो ?
शुभमे अटकनेसे डरनेकी भी बात नही है । यदि कोई शुभमे