SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कानजी स्वामी और जिनशासन ४६९ जिनशासनकी अच्छी ठोस सेवा बन सकती है और जैनधर्मका प्रचार भी काफी हो सकता है। अन्यथा, एकान्तकी ओर ढल जानेसे तो जिनशासनका विरोध और तीर्थका लोप हो घटित होगा। हाँ, जब स्वामीजी रागरहित वीतराग नही और उनके कार्य भी रागसहित पाये जाते हैं तब एक नई समस्या और खडी होती है, जिसे समयसारकी निम्न दो गाथाये उपस्थित करती हैं परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स। णवि सो जाणदि अप्पाणमयं तु सव्वागमधरो वि ।। २०१ ॥ अप्पाणमयाणतो अणप्पयं चावि सो अयाणतो। कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो ॥ २०२ ॥ इन गाथाओमे बतलाया है कि 'जिसके परमाणुमात्र भी रागादिक विद्यमान है वह सर्वागमधारी ( श्रुतकेवली-जैसा) होने पर भी आत्माको नही जानता, जो आत्माको नही जानता वह अनात्माको भी नहीं जानता, ( इस तरह ) जो जीव-अजोवको नही जानता वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?-नही हो सकता । आचार्य श्रीकुन्दकुन्दके इस कथनानुसार क्या श्रीकानजी स्वामीके विषयमे यह कहना होगा कि वे रागादिके सद्भावके कारण आत्मा-अनात्मा ( जीव-अजीव ) को नही जानते और इसलिए सम्यग्दृष्टि नही है ? यदि नही कहना होगा और नही कहना चाहिए तो यह बतलाना होगा कि वे कौनसे रागादिक हैं जो यहाँ कुन्दकुन्दाचार्यको विवक्षित हैं। उन रागादिकके सामने आने पर यह सहजमे ही फलित हो जायगा कि दूसरे रागादिक ऐसे भी हैं जो जैनधर्ममे सर्वथा निपिद्ध नही है। जहाँ तक मैंने इस विषयमे विचार किया है और स्वामी समन्तभद्रने अपने युक्त्यनुशासनको ‘एकान्तधर्नाभिनिवेशमूला.' इत्यादि कारिकासे मुझे उसकी दृष्टि प्रदान की है, उक्त गाथोक्त
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy