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युगवीर-निवन्धावली शासनमे प्रतिपादन किया है, जैसा कि द्रव्यसग्रहकी निम्न गाथासे प्रकट है -
असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वद-समिदि-गुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥४५॥
साथ ही, मुनिधर्म और श्रावक ( गृहस्थ ) धर्म दोनोंके लोपका भी प्रसग आता है, क्योकि दोनो ही प्रायः सरागचरित्रके अग हैं, जिसे व्यवहारचारित्र भी कहते हैं। इनके लोपसे जिनशासनका विरोध भी सुघटित होता है; क्योकि जिनशासनमे इनका केवल उल्लेख ही नहीं, बल्कि गृहस्थो तथा गृहत्यागियोंके लिये इन धर्मोके अनुष्ठानका विधान है और इन दोनो धर्मोके कथनो तथा उल्लेखोसे अधिकाश जैन ग्रन्थ भरे हुए हैं जिनमे श्रीकुन्दकुन्दके चारित्तपाहुड आदि ग्रन्थ भी शामिल है। इन दोनो धर्मोको जिनशासनसे अलग करदेनेपर जैनधर्मका फिर क्या रूप रह जायगा उसे विज्ञ पाठक सहजमे ही अनुभव कर सकते हैं।
यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि सरागचारित्र, जो सब ओरसे शुभभावोकी सृष्टिको साथमें लिये होता है तथा शुभोपयोगी कहलाता है, वीतरागचारित्रका साधक है-बाधक नही । उसकी भूमिकामे प्रवेश किये बिना वीतरागचारित्र तक किसीकी गति भी नहीं होती। वीतरागचारित्र मोक्षका यदि साक्षात् हेतु है तो वह' पारम्पर्य हेतु है । दोनो
१. इसीसे स्वामी समन्तभद्रने 'रागद्वेषनिवृत्यै चरण प्रतिपद्यते साधुः' इस वाक्यके द्वारा यह प्रतिपादन किया है कि चारित्रका अनुष्टान-चाहे वह सकल हो या विकल-रागद्वेषकी निवृत्तिके लिये किया जाता है।
२. "स्वशुद्धात्मानुभूतिरूपशुद्धोपयोगलक्षण-वीतरागचारित्रस्य पारसाधक सरागचारित्र प्रतिपादयति।"-द्रव्यसग्रहटीकाया, ब्रह्मदेवः