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कानजी स्वामी और जिनशासन ४३७ परिगणित किया गया है। इस विपयकी विशेष चर्चाको फिर किसी समय उपस्थित किया जायगा।"
साथ ही उक्त किरणके उसी सम्पादकीयमे एक नोटद्वारा, 'पुरस्कारोकी योजनाका नतीजा' व्यक्त करते हुए, यह इच्छा भी व्यक्त कर दी गई थी कि यदि कमसे कम दो विद्वान अव भी समयसारकी १५वी गाथाके सम्बन्धमे अभीष्ट व्याख्यात्मक निवन्ध लिखनेके लिए अपनी आमादगी १५ जून तक जाहिर करेंगे तो उस विषयके पुरस्कारकी पुनरावृत्ति कर दी जाएगी अर्थात् निवन्धके लिये यथोचित समय निर्धारित करके पत्रोमे उसके पुरस्कारकी पुन. घोपणा निकाल दी जाएगी। इतने पर भी किसी विद्वानने उक्त गाथाकी व्याख्या लिखनेके लिए अपनी आमादगी जाहिर नही की और न सोनगढसे ही कोई आवाज़ आई। और इसलिये मुझे अवशिष्ट विपयोके पुरस्कारोकी योजनाको रद्द करके दूसरे नये पुरस्कारोकी योजना करनी पडी, जो वर्ष १२ के अनेकान्त किरण न० २ मे प्रकाशित हो चुकी है। और इस तरह उक्त गाथाकी चर्चाको समाप्त कर देना पड़ा था।
हालमे कानजीस्वामीके 'आत्मधर्म' पत्रका नया आश्विनका अक न० ७ दैवयोगसे' मेरे हस्तगत हुआ, जिसमे 'जिनशासन'
१ 'दैवयोगसे लिखनेका अभिप्राय इतना ही है कि 'आत्मधर्म' अपने पास या वीरसेवामन्दिरमें आता नहीं है, पहले वह 'अनेकान्त' के परिवर्तनमें आता था, जबसे न्यायाचार्य प० महेन्द्रकुमारजी-जैसोके कुछ लेख स्वामीजीके मन्तव्योंके विरुद्ध अनेकान्तमें प्रकाशित हुए तवसे आत्मधर्म अनेकान्तसे रुष्ट हो गया और उसने दर्शन देना ही वन्द कर दिया। पीछे किसी सज्जनने एक वर्षके लिये उसे अपनी ओरसे वीरसेवामन्दिरको भिजवाया था, उसकी अवधि समाप्त होते ही अव फिर उसका