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________________ समवसरणमैं शूद्रोंका प्रवेश ४२७ मेरा जिनपूजाधिकारमीमासावाला उक्त लेख निराधार नही है यह सब बात पाठक ऊपर देख चुके हैं, अब देखना यह है कि अध्यापकजीके द्वारा प्रस्तुत धर्मसंग्रहश्रावकाचारका लेख कौनसे प्रमाणको साथमे लिये हुए है और उन दोनोके साथ आप मेरे लेखकी किस वातका मिलान कराकर आगमविरुद्ध कथन और धोखादेही जैसा नतीजा निकालना चाहते हैं ? धर्मसंग्रहश्रावकाचारके उक्त श्लोकके साथ अनुवादको छोडकर दूसरा कोई प्रमाण-वाक्य' नही है। मालूम होता है अध्यापकजीने अनुवादको ही दूसरा प्रमाण समझ लिया है, जो मूलके अनुरूप भी नही है और न मेरे उक्त लेखके साथ दोनोका कोई सम्बन्ध ही है। मेरे लेखमे चारो वर्णोके मनुष्योंके समवसरणमे जाने और व्रत ग्रहण करनेकी बात कही गई है, जब कि धर्मसंग्रहश्रावकाचारके उक्त श्लोक और अनुवादमे उसके विरुद्ध कुछ भी नहीं है। क्या अध्यापक जी शूद्रोको सर्वथा मिथ्यादृष्टि, अभव्य, असंज्ञी ( मनरहित ) अनध्यवसायी, संशयज्ञानी तथा विपरीत (या अपने अर्थके अनुरूप 'मिथ्यात्वी' ) ही समझते हैं और इसीसे उनका समवसरणमे जाना निपिद्ध मानते हैं ? यदि ऐसा है तो आपके इस आगमज्ञान और प्रत्यक्षज्ञानपर रोना आता है, क्योकि आगमसे अथवा प्रत्यक्षसे इसकी कोई उपलब्धि नहीं होती-शूद्र लोग इनमेमे किसी एक भी कोटिमे सर्वथा स्थित नही देखे जाते । और यदि ऐसा नही है अर्थात् अध्यापकजी यह समझते हैं कि शूद्र लोग सम्यग्दृष्टि, भव्य, संज्ञी, अध्यवसायी, असशयज्ञानी और अविपरीत (अमिथ्यात्वी) भी होते हैं तो फिर उक्त श्लोक और उसके अर्थको उपस्थित करनेसे क्या नतीजा ? वह उनका कोरा चित्तभ्रम अथवा पागलपन नही तो और क्या
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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