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समवसरणमें शूद्रोंका प्रवेश
४२५ हो और न उन्हे मनुष्य ही जानते हो, और इसीसे 'मानुषा.' तथा 'स्त्री-पुरुषा' पदोका उन्हे वाच्य ही न समझते हो ।।
यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि जिस हरिवंशपुराणके कुछ शब्दोका गलत आश्रय लेकर अध्यापकजी शूद्रो तथा दस्साओको जिनपूजाके अधिकारसे वञ्चित करना चाहते हैं उसके २ वे सर्गमे वसुदेवकी मदनवेगा-सहित 'सिद्धकूटजिनालय' की यात्राके प्रसङ्गपर उस जिनालयमे पूजावन्दनाके बाद अपने-अपने स्तम्भका आश्रय लेकर बैठे हुए' मातङ्ग (चाण्डाल ) जातिके विद्याधरोका जो परिचय कराया गया है वह किसी भी ऐसे आदमीकी आँखे खोलनेके लिये पर्याप्त है जो शूद्रो तथा दस्साओके अपने पूजन-निपेधको हरिवशपुराणके आधारपर प्रतिष्ठित करना चाहता है । क्योकि उससे इतना ही स्पष्ट मालूम नही होता कि मातङ्ग जातियोंके चाण्डाल लोग भी तब जैनमन्दिरमे जाते और पूजन करते थे, बल्कि यह भी मालूम होता है कि श्मशान-भूमिकी हड्डियोके आभूपण पहने हुए, वहाँकी राख बदनमे मले हुए तथा मृगछालादि ओढे, चमडेके वस्त्र पहिने और चमडेकी मालाएँ हाथोमे लिये हुए भी जैन
१. कृत्वा जिनमह खेटाः प्रवन्ध प्रतिमागृहम् ।
तस्थुः स्तम्मानुपाश्रित्य बहुवेपा यथायथम् ।। ३ ।। २. देखो, श्लोक १४ से २३ तथा 'विवाहक्षेत्रप्रकाश' पृष्ठ ३१ से ३५ । यहाँ उन दसमॆसे दो श्लोक नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं
श्मशानाऽस्थि-कृतोत्तसा मस्मरेणु-विधूसराः । श्मशान-निलयास्त्वेते श्मशान-स्तम्ममाश्रिता ॥ १६ ॥ कृष्णाऽजिनधरास्त्वेते कृष्णचर्माम्बर-स्रज. । कानील-स्तम्ममध्येत्य स्थिता. काल-श्व-पाकिन ॥ १८ ॥