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समवसरणमें शूद्रोका प्रवेश
४२३ और चार प्रकार शिक्षाव्रत ग्रहण किये।' परन्तु 'विशेषार्थकी दृष्टिसे' उन स्त्रीपुरुपोको चारो वर्णोके बतलाया गया है, क्योकि किसी भी वर्णके. स्त्री-पुरुपोके लिये समवसरणमे जाने और व्रतोके ग्रहण करनेका कही कोई प्रतिवन्ध नही है । इसके सिवाय, ग्रन्थके पूर्वाऽपर-कथनोसे भी इसकी पुष्टि होती है और वही अर्थ समीचीन होता है जो पूर्वाऽपर-कथनोको ध्यानमे रखकर अविरोध रूपसे किया जाता है। समवसरणमे असत् शूद्र भी जाते हैं यह श्रीमण्डपसे बाहर उनके प्रदक्षिणा-विधायक वाक्यके विवेचनसे ऊपर जान चुके हैं । यहाँ पूर्वाऽपर-कथनोके दो नमूने और नीचे दिये जाते हैं .
(क) समवसरणके श्रीमण्डपमे वलयाकार कोष्ठकोके रूप में जो बारह सभा-स्थान होते हैं उनमेसे मनुष्योके लिये केवल तीन स्थान नियत होते हैं--पहला गणधरादि मुनियोके लिये, तीसरा आयिकाओंके लिये और ११वा शेप सब मनुष्योके लिये। इस ११वे कोठेका वर्णन करते हुए हरिवंशपुराणके दूसरे सर्गमें लिखा है
सपुत्र-वनितानेक-विद्याधर-पुरस्सराः। न्यपीदन् मानुषा नानाभापा-वेष-रुचस्ततः ॥ ८६ ॥
अर्थात्-१०वे कोठेके अनन्तर पुत्र और वनिताओ-सहित अनेक विद्याधरोको आगे करके मनुष्य बैठे, जो कि (प्रान्तादिके भेदोसे ) नाना भापाओके बोलनेवाले, नाना वेपोको धारण करनेवाले और नाना वर्णों वाले थे।"
इसमे किसी भी वर्ण अथवा जाति-विशेषके मानवोके लिये ११३ कोठेको रिजर्व नही किया गया है बल्कि 'मानुषा' जैसे सामान्य पदका प्रयोग करके और उसके विशेषणको 'नाना' पदसे