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युगवीर-निवन्धादली
होते हैं - एक गन्धकुटीके पास चक्रपीठकी भूमिपर और दूसरा श्रीमण्डपके वाह्य प्रदेशपर । हरिवंशपुराणके उक्त श्लोकमें श्रीमण्डपके वाह्य प्रदेशपर प्रदक्षिणा करनेवालोका ही उल्लेख है और उनमे प्राय वे लोग शामिल हैं जो पाप करनेके आदी हैं -आदतन ( स्वभावत ) पाप किया करते हैं, खोटे या नीच कर्म करनेवाले असत् शूद्र हैं, धूर्तताके कार्य मे निपुण ( महाधूर्त ) हैं, अङ्गहीन अथवा इन्द्रियहीन हैं ओर पागल हैं अथवा जिनका दिमाग चला हुआ है । और इसलिये समवसरण मे प्रवेश न करनेवालोंके साथ उसका कोई सम्बन्ध नही है ।
छठे, अध्यापकजीने व्याकरणाचार्यजीके सामने उक्त श्लोक ओर उसके उक्त अर्थको रखकर उनसे जो यह अनुरोध किया है कि " आप अन्य इतिहासिक ग्रन्थो ( आदिपुराण- उत्तरपुराण ) के प्रमाणो द्वारा इसके अविरुद्ध सिद्ध करके दिखलावें और परस्परमे विरोध होने का भी ध्यान अवश्य रखखे" वह वडा ही विचित्र और वेतुका मालूम होता है । जव अध्यापकजी व्याकरणाचार्यजीके कथनको अगमविरुद्ध सिद्ध करनेके लिये उनके समक्ष एक आगमवाक्य और उसका अर्थ प्रमाणमे रख रहे हैं तब उन्हीसे उसके अविरुद्ध सिद्ध करनेके लिये कहना और फिर अविरोधमे भी विरोधकी शङ्का करना कोरी हिमाकतके सिवाय और क्या सकता है ? और व्याकरणाचार्यजी भी अपने विरुद्ध उनके अनुरोधको माननेके लिये कब तैयार हो सकते हैं ? जान पडता है अध्यापकजी लिखना तो कुछ चाहते थे और लिख गये कुछ और ही हैं, और यह आपकी स्खलित भाषा तथा असावधान - लेखनीका एक खास नमूना है, जिसके बल-बूतेपर आप सुधारकोको लिखित शास्त्रार्थका चैलेज देने बैठे हैं !!