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जैनागम और यज्ञोपवीत अपील करता है। कमसे कम जिन विद्वानोने जैनाचार्योंके शासन-भेदके इतिहासका अध्ययन किया है वे तो ऐसा नही कहेगे। उन्हे तो इतिहासपरसे इस बातका अनुभव होना भी स्वाभाविक है कि समय-समयपर कितनी ही लौकिक विधियोको जैनाचारमे शामिल किया गया है और फिर बादको उनके सरक्षणार्थ 'सर्व एव हि जैनाना प्रमाणं लौकिको विधि. । यत्र सम्यक्त्व-हानिर्न यत्र न वृतदूषणम् ॥' ऐसे-ऐसे वाक्योकी सृष्टि हुई है। अस्तु, यदि विद्वान लेखकको इस विषयमे दूसरोको चैलेज करना इप्ट हो तो वे खुले तथा स्पष्ट शब्दोमे चैलेज करे, तभी दूसरे विद्वान् उसपर गम्भीरता तथा गहरे अनुसधानके साथ विचार कर सकेगे और साथ ही 'आगममे मिश्रण' तथा 'महावीर-वाणीकी परम्परा' इन सबके मर्मका उद्घाटन भी कर सकेंगे।
कविवर प. बनारसीदासजीके अर्धकथानक-वाक्योको उद्धृत करके जो कुछ कहा गया है और उसमे चारित्रमोहनीयके उदयतककी कल्पना की गई है वह भी ऐसा ही कुछ अप्रासगिक जान पडता है । अर्धकथानकके उन वाक्योपरसे और चाहे कुछ फलित होता हो या न होता हो पर इतना तो स्पष्ट है कि कविवर जनेऊको विप्रवेषका अग समझते थे-जनवेषका नही, और जिस देश ( उ० प्रशदे ) मे वे रह रहे थे वहाँ जनेऊ विप्रसस्कृतिका अग समझा जाता था—जैनसस्कृतिका नही। तभी उन्होंने अपनेको ब्राह्मण प्रगट करनेके लिए जनेऊको अपनाया था। फिर उनकी कथनीके इस सत्यको यो ही इधरउधरकी बातोमे कैसे उडाया जा सकता है ?)
आदि पुराणके वाक्योको अलग कर देनेपर लेखमे केवल एक