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युगवीर-निवन्धावली के 'जयधवल' नामक भाष्य, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीक लब्धिसार ग्रन्थ और उसकी केशववणिकृत टीकापरसे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि म्लेच्छखडोके मनुष्य सयमलब्धिके पात्र हैं-जैनमुनिकी दीक्षा लेकर, छठे गुणस्थानादिकमे चढ कर, महाव्रतादिरूप सकलसयमका पालन करते हुए अपने परिणामोको विशुद्ध कर सकते हैं । यह दूसरी बात है कि म्लेच्छखडोमे रहते हुए वे ऐसा न कर सके, क्योकि वहॉकी भूमि धर्म-कर्मके अयोग्य है । श्री जिनसेनाचार्यने भी, भरत चक्रवर्तीकी दिग्विजयका वर्णन करते हुए 'इति प्रसाध्य तां भूमिमभूमि धर्मकर्मणाम्' इस वाक्यके द्वारा उस म्लेच्छभूमिको धर्म-कर्मकी अभूमि बतलाया है। वहां रहते हुए मनुष्योके धर्म-कर्मके भाव उत्पन्न नही होते, यह ठीक है। परन्तु आर्यखडमे आकर उनके वे भाव उत्पन्न हो सकते हैं और वे अपनी योग्यताको कार्यमे परिणत करते हुए खुशीसे आर्यखण्डज मनुष्योकी तरह सकलसयमका पालन कर सकते हैं। और यह बात पहले ही बतलाई जा चुकी है कि जो लोग सकलसयमका पालन कर सकते हैं-उसकी योग्यता अथवा पात्रता रखते हैं-- वे सब गोत्र-कर्मकी दृष्टिसे उच्च गोत्री होते हैं। इसलिये आर्यखडोके सामान्यतया सब मनुष्य अथवा सभी कर्मभूमिज मनुष्य सकलसयमके पात्र होनेके साथ-साथ उच्चगोत्री भी है। यही इस विषय मे सिद्धान्तग्रथोका निष्कर्ष जान पडता है।
विचारकी यह सब साधन-सामग्नी सामने मौजूद होते हुए भी, खेद है कि शास्त्रीजी सिद्धान्तग्रथोके उक्त निष्कर्षको मानकर देना नही चाहते । शब्दोकी खीचतान-द्वारा ऐसा कुछ डौल बनाना चाहते हैं जिससे यह समझ लिया जाय कि सिद्धान्तकी बातको न तो यतिवृषभने समझा, न जयधवलकार वीरसेन-जिन