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अर्थ-समर्थन
ऊँच-नीच सभी प्रकारके मनुष्योंको जैनधर्म बतलाना चाहिये, सभी देशोमे जैनधर्मका प्रचार करना चाहिये। श्रीजिनवाणीका ( जैनशास्त्रोका ) अनेक देशोकी अनेक भाषाओमे उल्था होकर वीर-जिनेन्द्रका शुभ समाचार और उनका पवित्र आदेश उन देश-- निवासियो तक पहुँचाना चाहिये" इस आधुनिक आन्दोलनसे अप्रसन्न और रुष्ट होकर उक्त पडितजीने १७ फरवरी सन् १६१३ के जैन गजट अक १५ मे एक लेख दिया था, जिसका शीर्षक था. 'शास्त्रानुकूल प्रवर्त्तना चाहिये।' पडितजीके इसी लेखके शीर्षकवाक्यका अभिनन्दन करते हुए मैंने उपर्युक्त 'शुमचिह्न' शीर्पकलेख जैनमित्रमे दिया था।
पडितजीने अपने इस १७ फरवरीके लेखमे एक स्थानपर लिखा था कि--
"आगम-विरुद्ध अनुमान नही, अनुमानाभास है। आदिपुराणमे भरत महाराजने १६ स्वप्न देखे, उनमें एक स्वप्न यह है कि म्लेच्छकुलमे राज्य और बडे कुलके उनकी सेवा करें। दूसरा यह कि वैश्य वर्ण जैनधर्मको धारण करे।"
इस लिखनेसे पडितजीका अभिप्राय यह सिद्ध करनेका था कि जब यह भविष्यद्वाणी हो चुकी है और शास्त्रोमें मौजूद है कि 'पचमकालमें म्लेच्छ कुलमें राज्य रहेगा और वैश्य वर्ण ही जैनधर्मको धारण करेगा' तब ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और म्लेच्छादिकोको जैनी बनानेका प्रयत्न करना और यूरोपादि देशोमे धर्मप्रचारके लिये जाना बिलकुल व्यर्थ और फिजूल ही नहीं, बल्कि आगमके भी विरुद्ध है। इसमे सफलता प्राप्त होना असभव है और यदि इन देशोमे जाकर ( जिनको पडितजी कुनाम लिखते हैं) बहुत कुछ परिश्रम करनेसे दो-चार, दस-बीस, जैनी बन भी गये