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गोत्रकर्मपर शास्त्रीजीका उत्तर-लेख : १४ :
म्याद्वादमहाविद्यालय के प्रधान अध्यापक प० कैलाशचन्द्रजीका एक लेख 'अनेकान्त' द्वितीयवर्षकी तीसरी किरणमे प्रकाशित किया गया था। वह लेख बाबू सूरजभानजी वकीलके 'गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता' शीर्षक लेखके उत्तररूपमै था और उसमे उक्त लेखपर कुछ 'नुक्ताचीनी' करते हुए बाबू साहवको 'गहरे भ्रमका होना' लिखा था, वाबू साहबने जयधवला तथा लब्धिसार टीकाके वाक्योका जो निष्कर्प अपने लेखमे निकाला था उसे 'सर्वथा भ्रान्त', 'अर्थका अनर्थ' तथा 'दुराशय' बतलाते हए और यहाँ तक भी लिखते हुए कि 'फलितार्थको जो कोई भी समझदार व्यक्ति पढेगा वह सिर धुने विना नही रहेगा' बाबू साहबको उसके कारण 'दुराशयसे युक्त', 'शास्त्रके साथ न्याययकी यथेष्ट चेष्टा न करनेवाला' और 'अत्याचारी' तक प्रकट किया था। साथ ही, 'वृद्धावस्थामै ऐसा अत्याचार न करनेका उनसे अनुरोध' भी किया था। यह सब कुछ होते हुए भी शास्त्रीजीके लेखमे विचारकी सामग्री बहुत ही कम थी, कोई ऐसा खास शास्त्रप्रमाण भी उन्होंने अपनी तरफसे प्रस्तुत नही किया था जिससे यह स्पष्ट होता कि कर्मभूमिज-मनुष्य ऊँच और नीच दोनो गोत्रवाले होते हैं। लेखका कलेवर ‘ऐसी' और 'इसमे' के शब्दजालमे पडकर और उनके प्रयोग-फलको प्रदर्शित करनेके लिये कई व्यर्थके उदाहरणोको अपनी तरफसे घड-मढकर बढाया गया था--अर्थात् बाबू साहबने अपने लेखमे उद्धृत जयधवला और लब्धिसारटीकाके प्रमाणोका जो एक सयुक्त भावार्थ दिया था उसमे मूलके 'इति' शब्दका