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अनोखा तर्क और अजीव साहस
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साथ बलात्कारका प्रयोग किया गया है, फिर भी उनकी ऊपरसे रक्षा हुई है और रक्षाके लिये गुप्त शक्तियाँ प्रकट हो गई हैं । तब रावणकी प्रतिज्ञाका तो मूल्य ही क्या हो सकता है ? वह तो कितने ही अशोमे उससे डिग गया था । यदि सीताके चरित्रमे कुछ भी त्रुटि होती अथवा उसकी ओरसे सहयोगका जरा भी इशारा पाया जाता तो कामातुर रावण उसको भोगे बिना न रहता । अत लेखकजीकी उक्त आपत्ति बिल्कुल ही निस्सार और निराधार है ।
( २ ) " नहीं कह सकते हैं कि उसने कितनी परस्त्रियोका जो कि किसी मी कारणसे उससे रजामन्द हो गई हो सतीत्व नष्ट ( मग ) किया होगा", इस वाक्यमे निश्चितरूपसे कुछ भी नही कहा गया, मात्र प्रतिज्ञाके रूपसे उत्पन्न होनेवाली सभावनाको ही व्यक्त किया गया है । इस पर भी आपत्ति करते हुए लेखकजी अपना वही आलाप अलापते हैं और लिखते हैं कि - " रावणके कामभोगका त्याग था तभी तो सती सीताका सतीत्व भग नही हुआ और इसी कारण सीताने अग्नि कुण्डमे प्रवेश होनेसे पूर्व ही सबके समक्षमे ये वचन कहे थे ।" इसके बाद पुण्यास्त्रवसे " मनसि वचसि काये" नामका श्लोक उद्धृत करके पुन लिखते हैं — " इस प्रमाणसे सती सीताका सतीत्व नष्ट न होनेसे रावण व्यभिचारी वा परस्त्री - लम्पटी कदापि नही हो सकता है और यदि हो सकता है तो प्रमाण लिखिये । "
इस आपत्तिमे पुण्यास्रव ग्रन्थका जो श्लोक उद्धृन किया गया है वह तो बिल्कुल ही निरर्थक तथा अप्रासंगिक है । उसे उद्धृत करने की यदि कुछ जरूरत होती भी तो तब होती जब कोई यह कहता कि रावणने सीताका सतीत्व नष्ट किया था ॥