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अनोखा तर्क और अजीव साहस !
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( सहमत ) हो गई हों, सतीत्व भंग किया होगा अथवा उक्त प्रतिज्ञासे पूर्व कितनी पददाराओंसे बलात्कार भी किया होगा । इस परस्त्री सेवनके अतिरिक्त वह हिंसादिक अन्य पापका भी त्यागी नहीं था । दिग्विरति आदि सप्तशील व्रतोंके पालनकी तो वहाँ बात ही कहाँ ? परन्तु यह सब होते हुए भी, रविसेणाचार्यकृत पद्मपुराणमे अनेक स्थानोंपर ऐसा वर्णन मिलता है कि "महाराजा रावणने बड़ी भक्ति-पूर्वक श्रीजिनेन्द्रदेवका पूजन किया । रावणने अनेक जिनमन्दिर बनवाये । वह राजधानी में रहते हुए अपने राजमन्दिरोंके मध्य मे स्थित श्री शान्तिनाथके सुविशाल चैत्यालयमें पूजन किया करता था । बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करनेके लिये बैठनेसे पूर्व तो उसने इस चैत्यालयमे बड़े ही उत्सवके साथ पूजन किया था और अपनी समस्त प्रजाको पूजन करनेकी आज्ञा दी थी । सुदर्शनमेरु और कैलाशपर्वत आदिके जिनमन्दिरोंका उसने पूजन किया और साक्षात् केवली भगवान्का भी पूजन किया ।"
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( १ ) " लंकाधीश महाराज रावण परस्त्री-सेवनका त्यागी नहीं था, प्रत्युत परस्त्रीलम्पट विख्यात है" इस वाक्य पर आपत्ति करते हुए लेखकजी कहते हैं- "रावण सीताके हरणसे पूर्व ही कामभोग के त्यागकी प्रतिज्ञा ले चुका था और इस प्रतिज्ञाके कारण ही सतीका सतीत्व नए नहीं हुआ और कामभोगका त्यागी होनेसे परस्त्री- लम्पटी व व्यभिचारी कदापि नहीं हो सकता है। यदि ऐसा हो सकता है तो सिद्ध कीजिये ।"
मेरे द्वारा उल्लेखित रावणकी शास्त्रीय प्रतिज्ञाका कोई खंडन न करके लेखक महाशयने जिस नई प्रतिज्ञाका उल्लेख किया है उसके समर्थनमे कोई भी प्रमाण उपस्थित नही किया गया – किसी भी जैनशास्त्रमे रावणकी प्रतिज्ञाका ऐसा विचित्र रूप नही है । 'कामभोगके त्याग' का अर्थं तो कामसे इन्द्रिय