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युगवीर-निवन्धावली
"स्वात्मस्थित कृतकृत्य हुआ निज पूर्ण-स्वार्थको अपनाता" जैसे शब्दोका प्रयोग किया गया है। वहाँ भी उस स्वात्मस्थिति-रूप स्वार्थको अपनानेकी बात कही गई है, त्यागनेकी नही। और इससे मेरी दृष्टि स्वार्थके दोनो अर्थों पर रही है। मैंने उसमें विरोध नहीं आने दिया है-यह सहजमे ही समझा जा सकता है। ऐसी हालतमे यह स्पष्ट है कि मेरे दोनो कथनोमे पूर्वापरविरोध नहीं है। उनमे पूर्वापर-विरोधकी कल्पना कर लेना किसी गलती, भूल अथवा असावधानीपर अवलम्बित है। माशा है, भाई भगवानदोनजी मुझे इस स्पष्टवादिताके लिये क्षमा करेंगे।
~ जैनदर्शन, वर्ष ४, १-१-१९३७