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युगवीर-निवन्धावली
होना अशक्य समझते हैं और उस ओरसे विल्कुल ही हतोत्साह हो वैठते हैं तो अच्छा होता यदि इतना कहकर ही वे अपने हृदयका सताप मिटा लेते कि 'आजकल देशकालकी परिस्थितिको देखते हुए साधुसंस्थाकी जरूरत नहीं है-उसे एकदम उठा देना चाहिये । परन्तु सकल-सावद्ययोग-विरतिकी प्रतिज्ञासे आवद्ध एक महाव्रती जैन साधुको सावद्यकर्म करनेकी प्रेरणा करना और फिर यहातक कह डालना कि 'ऐसा करनेसे उक्त महाव्रतमे कोई वट्टा नहीं लग जायगा-वह उलटा चमक उठेगा, बहुत कुछ हास्यास्पद तथा आपत्तिके योग्य मालूम होता है। जान पडता है वैसा लिखते और वोलते हुए यथोचित विचारसे काम नही लिया गया।
मैं एकान्त वेपका पक्षपाती नही और न ऐसे साधुओके प्रति भेरी कोई श्रद्धा अथवा भक्ति है जो अपने महाव्रतोका ठीक तौरसे पालन नहीं करते, आगमकी आज्ञानुसार नही चलते, लोकैषणामे फंसे हुए हैं, अहकारके नशेमे चूर है, सुखी एव विलासी जीवन वितानेकी धुनमे मस्त है, आरभ-परिग्रहसे जिन्हे विरक्ति नही, प्रमाद जिनसे जीता नहीं जाता, जो दम्भ रचते, मायाचार करते और इस तरह अपनेको तथा जगतको ठगते हैं। ऐसे साधुओकी व्यक्तिगत कडीसे कडी आलोचनाको मैं सहन कर सकता हूँ। परन्तु यह मुझसे बर्दाश्त नही होता कि एकके अथवा कुछके दोषसे सबको दोषी ठहराया जाय, सबको एकही डडेसे हाका जाय और सारी साधु-सस्थाका ही मूलोच्छेद किया जाय । कोई छूट न रखकर वर्तमानके सभी साधुओके लिये "आजका साधु " " जैसे उद्गारोके साथ ओछे शब्दोका प्रयोग करना सयतभाषाके विरुद्ध है। उसमे कही कही सभ्यताकी सीमाका