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युगवीर-निवन्धावली और अपने पाठकोका समय व्यर्थ नष्ट करना नही चाहता। परन्तु लेखमै मेरे ऊपर एक विलक्षण आरोपके लगानेकी भी चेष्टा की गई है। अत इस लेखकी असलियतका कुछ थोडा-सा परिचय 'अनेकान्त' के पाठकोको करा देना और उनके सामने अपनी पोजीशनको स्पष्ट कर देना में अपना उचित कर्त्तव्य समझता हूँ। उसीका नीचे प्रयत्न किया जाता है। और वह पाठकोको कुछ कम रुचिकर नही होगा, उससे उनकी कितनी ही गलतफहमियाँ दूर हो सकेंगी और वे वैरिष्टर साहवको पहलेसे कही अधिक अच्छे रूपमे पहचान सकेंगे।
सम्पादकके पिछले कामोकी आलोचना करते हुए वैरिप्टर साहव लिखते हैं-"खण्डनका काम आपका दरअसल खूब प्रसिद्ध है। मण्डनका काम अभी कोई काविल तारीफ आपकी कलमका लिखा हुआ मेरे देखनेमे नही आया ।" इत्यादि, और इसके द्वारा आपने यह प्रतिपादन किया है कि सम्पादकके-द्वारा अभी तक कोई अच्छा विधायक कार्य नही हो सका है-अनेकान्तके-द्वारा कुछ होगा तो वह आगे देखा जायगा, इस वक्त तो वह भी नही हो रहा है।
इस सवधमे मैं सिर्फ दो वातें बतलाना चाहता हूँ। एक तो यह कि ऐसा लिखते हुए वैरिष्टर साहब जैन-सिद्धान्तकी इस वातको भूल गये हैं कि खण्डनके साथ मण्डन लगा रहता है, एक बातका यदि खडन किया जाता है तो दूसरी बातका उसके साथ ही, मण्डन हो जाता है और खण्डन जितने जोरका अथवा जितना अच्छा होता है मडन भी उतने ही जोरका तथा उतना ही अच्छा हुआ करता है। उदाहरणके तौरपर शरीर के दोषो अथवा विकारोका जितना अधिक खण्डन किया जाता है शरीरके