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युगवार-निवन्धावली बीचके पाठको खोजनेकी कोई जरूरत ही वाकी नही रही । उसे तो यह स्पष्ट जान पडा कि लेखक साप्रदायिक कट्टरताके आवेशमे वेसुध हो गया है। इसीसे अपने सामने जर्नलकी १३ वी जिल्दवाला जायसवालजीका नया पाठ और मुनिजी-द्वारा उद्धृत पाठ मौजूद होते हुए भी उन दोनोका अभेद उसे मुझ नही पडा और न यही खवर पडी कि मैं क्या लिख रहा हूँ, क्यो लिख रहा हूँ अथवा किस वातका विरोध करने बैठा हूँ ? इस प्रकारकी हानिकारक प्रवृत्तिका नियत्रण करने और ऐसे लेखकोकी आखे खोलनेके लिए ही वह लेख छापा गया, और उसपर नोट लगाये गये । मैं चाहता तो उस लेखको भी न छापता-छापनेकी कुछ इच्छा भी नही होती थी-परन्तु, चूंकि वह लेख 'अनेकान्त' के एक लेखके विरोधमे था, उसके न छापनेपर बाबू साहब उसे अन्यत्र छपाते-जैसाकि उन्होने "जिम्नोसो फिस्ट्स' जैसे पदपदपर आपत्तियोग्य लेखको यहाँ से वापिस होने पर 'वीर' मे छपाया है और यह ठीक न होता । इससे छापतेमे कुछ प्रसन्नता न होते हुए भी उसका छापना ही उचित समझा गया। और इसलिये लेखके प्रकट होनेके वाद जब वाबू साहवका दूसरा पत्र आया तो उसके 'खेद' आदि शब्दोपरसे मुझे आपकी मनोवृत्ति और पूर्व पत्रके विरुद्ध लिखनेको देखकर बडा अफसोस हुआ और इस ना-समझीको मालूम करके तो और दु.ख हुआ कि आप अभी तक भी अपनी भूल स्वीकार नहीं कर रहे है ।। उस पत्रके साथमे आपने अपना कोई सशोधन नही भेजा, जिसकी दुहाई दी जा रही है, यदि भेजते तो जरूर छाप दिया जाता-भले ही उसपर कोई और नोट लगाना पडता। पहले 'अनेकान्त' की ४ थी किरणमे प० सुखलालजी तथा बेचरदासजीका एक सशोधन प्रकाशित हुआ है, और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि सपादक