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शुभचिह्न उक्त आदिपुराणमें भरतजीके आठवें स्वप्नका फल वर्णन करते हुए लिखा है --
"शुष्कमध्यतडागस्य पर्यन्तेऽम्बुस्थितीक्षणात् ।
प्रच्युत्यायनिवासात्स्याद्धर्म. प्रत्यन्तवासिपु॥" अर्थात् मध्यमे सूखा और किनारोपर जल लिये हुए ऐसा तालाब देखनेसे यह फल होगा कि ( पचमकालमै ) जैनधर्म आर्य देशको छोडकर प्रान्त देशो (Border Countries) मे फैलेगाम्लेच्छ-देशोके निवासी जैनधर्मको धारण करेंगे। इससे प्रगट है कि अन्य दूर देशोमे जैनधर्मके प्रचारकी कितनी आवश्यकता है और उसमें कितनी अधिक सफलता प्राप्त हो सकती है।
६--उक्त आदिपुराणमे भरतजीके पांचवे स्वप्नका फल वर्णन करते हुए लिखा है कि पचमकालमे आदिक्षत्रियवशोका उच्छेद हो जायगा और उनसे कुछ हीनवश वा कुलके मनुष्य 'पृथ्वीका पालन करेंगे। ऐसा नही लिखा कि म्लेच्छ-कुलमे ही राज्य होगा । यथाकरीन्द्रकन्धरारूढ़शाखामृगविलोकनात् । आदिक्षत्रान्वयोच्छित्तौ क्ष्मां पास्यन्त्यकुलीनका. ।। ( ४१-६९)
-जैनमित्र, २४-३-१९१३