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उपासना-विषयक समाधान
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प्रतिमाओकी वन्दना तथा पूजा किया करते थे। नगरके लोगो तथा अन्य प्रजाजनोने भी भरतजीकी इस कृति तथा सृष्टिका अभिनन्दन किया था, वे सब उसे बहुत पसन्द करते हुए उन घटोका आदर-सत्कार किया करते थे और कुछ दिनके वाद उन्होने खुद भी अपनी-अपनी शक्ति तथा विभवके अनुसार उसी प्रकारके घटे अपने-अपने घरोके तोरण-द्वारोपर बाध लिये थे ।
उसी वक्तसे गृह-द्वारपर वन्दनमालाए वाधनेका रिवाज पडा जो कि आज एक दूसरे ही रूपमे दृष्टिगोचर होता है। भगवान् ऋषभदेवने उस वक्त मरत चक्रवर्तीको इस प्रकारसे घटे वाधने तथा पूजा-वन्दना करनेका कोई उपदेश नही दिया-वह भरतजीकी
१. इस आशयको पुष्ट करनेवाले आदिपुराण ( पर्व ४१ ) के वे वाक्य इस प्रकार हैं:
निर्मापितास्ततो घटा जिनविम्बैरलकृता । परायरत्ननिर्माणा सम्बद्धा हेमरज्जुमि ॥ ८७ ॥ लम्विताश्च पुरद्वारि ताश्चतुर्विशतिप्रमा ।। राजवेश्म-महाद्वार-गोपुरेप्वप्यनुक्रमात् ॥ ८८ ।। यदा किल विनिर्याति प्रविशत्यप्यय प्रभु । तढा मौल्यग्रलग्नामिरस्य स्यादर्हता स्मृति ॥८९।। स्मृत्वा ततोऽहंदर्चाना भक्त्या कृत्वाभिनन्दनाम् । पूजयत्यमिनिष्क्रामन्प्रविशश्च स पुण्यधी ॥१०॥ रत्नतोरणविन्यासे स्थापितास्ता निधीशिना । दृष्वाऽहंद्वन्दनाहेतो कोऽप्यासीत्तदादर. ॥१३॥ पोरैर्जनैरत स्वेपु वेश्मतोरणदामसु । यथाविभवमावद्धा घटास्ता सपरिच्छदा ॥९॥ आदिराजकृता सृष्टिं प्रजास्ता बहुमेनिरे। प्रत्यागार यतोऽद्यापि लक्ष्या वन्दनमालिकाः ॥९५॥