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उपासना-विषयक समाधान
२५५ पढना वगैरह-वगैरह सबको अधर्म तथा अप्रमाण कहना चाहिए । क्योकि भगवान् द्वारा उपदेशित जैनशास्त्रोमे उन सब क्रियाओका और इसी प्रकारको और भी हजारो क्रियाओका कही भी कोई उपदेश अथवा विधान नहीं है ?
धर्म-अधर्मकी इस विलक्षण परिभापाके अनुसार तो अनिर्दिष्ट टाइप अथवा नमूनेके नये-नये मदिर बनवाना और उनमें ऐसी रचनाओका रचा जाना भी अधर्म होगा जिनका जैनशास्त्रोमे कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है और न पहलेगे कोई नकशा ही दिया हुआ है, क्योकि उनके निर्माणमे श्रावकोकी रुचि तथा शक्ति आदि ही अधिक चरितार्थ होगी। वर्तमानके सभी मदिर प्राय ऐसे ही बने हए हैं, और इसलिये उनकी रचनाको धर्मका कोई अग न मानते हुए उन्हे अप्रमाण तथा अमान्य कहना होगा। मैं पूछता हूँ भगवान् महावीरने पावापुरके वर्तमान जल-मदिरका नकशा खीचने अथवा चित्र बनानेका कहाँ उपदेश दिया है ? यदि नही दिया और श्रावक लोग आजकल अपने मदिरोकी दीवारोपर उसका चित्र खिचवाते है तो क्या वे अधर्मका काम करते हैं ? अथवा वह कृत्य उनके मदिर-निर्माणका एक अश होते हुए भी उनकी उपासनाका कोई अश नही है और इसलिये उसे व्यर्थ कहना चाहिये ? इसी तरह मदिरोके फर्श तथा दीवारो आदिमे जो नवीन टाइल्स अथवा चीनी आदिके रग-विरगे फूल-पत्तीदार चौके जडवानेका रिवाज होता जाता है उसे भी अधर्म अथवा व्यर्थका कार्य कहना होगा, क्योकि भगवान्ने तो उनके जडवानेका उपदेश दिया नही और न शास्त्रोमे किसी प्राचीन जैनाचार्यका ही वैसा विधान पाया जाता है। हाँ, भक्तजनोकी भक्तिका वह एक विशेप जरूर है, जिसे शास्त्रीजीकी परिभापाके अनुसार धर्म नही कह सकते।