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उपासना-विषयक समाधान
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सूचित किया है और वैसे भी 'देशिता' का अर्थ 'प्रतिपादिता.' दिया है न कि 'आदेशिता' । खेद है बडजात्याजीने शब्दोंके अर्थको तो वदलनेकी चेष्टा को, परन्तु मूलके आशयको समझनेकी कोई अच्छी अथवा यथेष्ट कोशिश नहीं की ? और न वे पात्रकेसरीस्तोत्रके उन दो पद्यो ( न० ३८, ३६ ) का ही ठीक आराय समझ सके हैं जिनको उन्होंने अपनी ओरसे पेण किया है और जिनपर अभी विचार किया जायगा । उन्हे शायद यह भी खवर नही पडी कि भगवान्के मोहनीय आदि कर्मोका अभाव हो जानेसे जव प्रमत्तयोग नही रहा और न सक्लेश-परिणाम अथवा कपायभावका ही कोई सद्भाव पाया जाता है तब उनके पापका वन्ध कैसे बन सकता है और उस पापबन्धकी शड्काको दूर करनेके लिये यह उपदेश-आदेश-भेदकी कल्पना कितनी हास्यास्पद है । क्या हिंसात्मक क्रियाके करनेका सीधा उपदेश देनेसे किसीको भी हिंसाका कारित अथवा अनुमति दोप नही आता ? जरूर आता है, तो फिर उपदेश-आदेश-भेदकी इस कल्पनासे नतीजा कया ? शास्त्री बनारसीदासजीकी भ्रान्तिका निराकरण :
यहॉपर मैं इतना और भी वतला देना चाहता हूँ कि जिनेन्द्रके उपदेश-आदेश-भेदकी यह कल्पना शास्त्री वनारसीदासजीने नही की-उन्हे इस प्रकारकी भ्रान्ति नही हुई— उन्होने 'न देशिता.' का अर्थ भी 'उपदेश नही दिया' ही दिया है और भगवान सर्वज्ञके उस उपदेशको ही आज्ञा अथवा आदेश माना है।
परन्तु आप एक दूसरी भ्रान्तिके शिकार बने हैं और वह यह कि, भगवान्ने जिस क्रियाका उपदेश नही दिया वह धर्मका अंग नही हो सकती और न उसमे प्रमाणता ही आ सकती है।