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उपासना-विषयक समाधान
२४९ नैवैद्यादिकका चढा देना ही पूजा है और मदिर-मूर्तिके लिये दान देना ही दान है ? क्या भगवान्की स्तुति करना, स्तोत्र पढना, त्रिकाल वदना करना, परमात्माके ध्यानमै लीन होना, परमात्माका नाम आते ही झुक जाना—नम्रीभूत हो जानाउनके चरित्रकी प्रशसा करना और उनके गुणोमे अनुराग वढाना पूजा नही है ? (पूजाके भेद-प्रभेदोको जरा अपने ग्रन्थोमे ही देखिये ) क्या आहार, औपच, अभय और विद्या ( शास्त्र) दानका देना दान नही है ? ओर क्या इस प्रकारकी पूजा तथा दानकी प्रवृत्ति हमारे दूढिया भाइयोमे नही पाई जाती या उनके यहाँ उसका विधान नहीं है ? वे तो चैत्यालय तक बनाते हैं-उनके स्थानक ही उनके मदिर अथवा चैत्यालय हैं, जो स्थावर प्रतिमाओके लिये नही किन्तु प्राय जगम प्रतिमाओ—साधुओके लिये होते हैं और श्रावक लोग भी वहाँ जाकर परमात्माका भजन करते उपदेश सुनते अथवा सामायिक आदि धार्मिक क्रियाओका अनुष्ठान करते हैं । फिर नही मालूम दान-पूजा तथा चैत्यालयकी वात उठाकर बडजात्याजी मुझपर क्या आक्षेप करने बैठे हैं और इस आक्षेपको करते हुए उनके होश-हवास कहाँ चले गये थे ? क्या उन्होने लेखकके लिखे हुए, 'उपासनातत्त्व' को भी नही पढा, जिसके पढनेकी लेखमे प्रेरणा की गई थी और जिसमे मूर्तिपूजाका भी अच्छा मडन किया गया है ? सच है क्षोभकी हालतमे मनुष्य सज्ञाहीन-सा हो जाता है और उसे योग्य-अयोग्य अथवा वक्तव्य-अवक्तव्यका प्राय कुछ भी विचार नही रहता।
द्वितीय भ्रान्तिका निरास:
अब मैं एक दूसरी भ्रान्तिका निरसन करता हूँ और वह है