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युगवीर - निवन्धावली
क्रियाओ का निपेध कहापर मिलता है । यदि ये क्रियाएँ ठीक नही हैं तो फिर उनके करनेवाले भक्तोके लिये अतिशय भक्तिवाले विशेषण न आता ।"
इन अप्रासंगिक आक्षेप - वाक्योको लेखकके उक्त अनुवादके साथ पढनेपर सहृदय पाठक सहजमे ही, यह जानते हुए कि इनमे कुछ भी तथ्य नही है, बडजात्याजीके क्षोभ तथा भ्रान्तिकी गुरुताका अच्छा अनुभव कर सकते हैं और साथ यह भी मालूम कर सकते हैं कि उनका युक्तिवाद बढा-चढा है - वे अतिशय भक्तिको किसी क्रियाके ठीक अथवा समीचीन होनेकी गारन्टी समझते हैं अथवा यो कहिये कि समीचीनताके साथ अतिशय भक्तिका अविनाभावी सम्बन्ध मानते हैं । तब तो जो लोग अतिशय भक्तिके वश होकर कुदेवोकी पूजा करते हैं, उनके लिये बडे-बडे मन्दिर खडे करते हैं और उन्हे पशुओकी बलि तक चढाते हैं उनकी वे मिथ्यात्व क्रियाएँ भी ठीक अथवा सम्यक् ठहरेगी ? और उनपर आक्षेप करने या उनके विपक्षमे कुछ भी कहनेका जैनियोको अथवा बडजात्याजीको कोई अधिकार नही रहेगा । जान पडता है भ्रान्तदशाके कारण बडजात्याजीको अपने इस हेतुवादके ऐसे नतीजे - का कुछ भी मान नही रहा और उन्होने बिना जॉच किये ही उसका प्रयोग कर दिया ।
समझमे नही आता कि जब मेरे उक्त अनुवादका कोई तात्विक भेद नही है - वे खुद ही अपने अनुवादमे लिखते हैं कि "हे भगवन् चैत्यालयका बनाना, दान देना, पूजन करना आदि कार्य प्राणियोकी हिंसा और पीडाके कारण हैं, इनके करनेका आदेश आपने नही दिया " - " किन्तु आपमे अतिशय भक्ति रखने - वाले श्रावकोने मोक्ष-सुखके लिये वे क्रियाएं अपने आप निर्माण
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